गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12भगवदीय प्रेरणा से ही भगवद्-स्वरूप में प्रीति, मोह किंवा आसक्ति संभव है। सांसारिक विषयों से हटकर मन का भगवात्-स्वरूप में अवरुद्ध हो जाना ही आसक्ति किंवा निरोध है। पूर्वप्रसंगों में इस विषय की विस्तृत विवेचना की जा चुकी है। भगवान श्रीकृष्णचंन्द्र का स्वरूप मायिक किंवा पंचभौतिक नहीं है तथापि शुद्ध यच्चिदानन्द घनरूप भी नहीं है, अपितु शुद्ध रसात्मक है। कान्ता-वांछित चैतन्य, सच्चिदानन्द परब्रह्म का अवस्थांतर ही रस है एतावता, रस को ब्रह्म-सदोहर कहा गया है। ब्रह्म एकरस है परन्तु पानक-न्यायतः उसमें विभिन्न रसों का सम्मिश्रण है। अस्तु, रसात्मक में आलंबन, उद्दीपन, संचार आदि विभिन्न विभावों की विस्फूर्ति होना अनिवार्य है। यथार्थतः ये विभिन्न भाव व्यभिचारी हैं क्योंकि वे रस का संचार कर लुप्त हो जाते हैं; इनकी विशेषता यही है कि इनके द्वारा रस की चमत्कृति अभिव्यक्त होती है। शास्त्रानुसार श्रृंगार-रस ही अंगो रस है, अन्य सब रस अंग हैं अतः श्रृंगार-रस ही प्रमुख रस है; श्रृंगार- रस भी दो प्रकार का है, संयोग-श्रृंगार तथा विप्रलम्भ-श्रृंगार। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का विग्रह निखिल-रसामृत-मूर्ति, सम्पूर्ण रसों का सार-तत्त्व है अतः उनमें यथा-समय विभिन्न भाव सांयोपांग अभिव्यक्त होते हैं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारा धारित चूत प्रवाल, नवल कोमल आम्रपल्लव आसक्ति का तथा मयूर-पुच्छ तम का सूचक है। तम से अवरण, आवरण से मोह, मोह से विवेकाभाव होता है; ‘प्रेमोन्मादजं विवेकराहित्यं भूषणम् इदं न तु दूषणम्’ जो दूषण नहीं अपितु भूषण है। प्रेमोन्मादजन्य मूर्च्छा में प्रलापादि व्यापार होते रहते हैं परन्तु उनमें ज्ञान का आभाव होता है। पूर्व-प्रसंगों में बताया जा चुका है कि भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उत्पलाब्जमाल, आम्र-पल्लव एवं मयूर-पुच्छ धारण कर रखे हैं; उत्पलाब्जमाला से प्रेम, आम्र-पल्लव से आसक्ति और मयूर-पुच्छ से मोह विवछित है, तात्पर्य कि आसक्ति-निरोध, तथा व्यसन-निरोध तीनों ही भगवत स्वरूप में अन्तर्निहित हैं; भगवान का मंगलमय विग्रह ही विशेषण- विशिष्ट संप्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक-उभयविध एककालावच्छेदेन उद्बुद्ध श्रृंगार-रस-सर्वस्व है। |