गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11हे नाथ! जो अपने नलिनादपि सुन्दर एवं सुकोमल चरणार-विन्दों को भी ताप पहुँचा रहा है, उससे किसी भी प्रकार के सुखप्राप्ति की, अनुग्रह की प्रार्थना करना ही व्यर्थ है। जो अपने ही सुकुमोल अंगों के लिए कठोर है वह अन्य के लिए क्योंकर सकरुण हो सकता है? ब्रह्मा भी कहते हैंः अबला-भक्षण-हेतु ही आप वन-प्रान्तर में अटन करते हैं। आपके लिए यह कोई आश्चर्यजनक किंवा विचित्र बात नहीं है क्योंकि: पूतना-वध जैसा आपका बाल-चरित्र ही आपके निर्दय स्वभाव को प्रख्यात कर रहा है। यही कारण है कि हे नाथ! आप अपने इस नलिनादपि सुन्दर सुकोमल चरणारविन्दों के प्रति भी अकारण अकरुण हो रहे हैं; इस स्थिति में हे कान्त! हम आपके किस सुख की आशा कर सकते हैं? पद का निवृत्ति-पक्षीय अर्थ है; ‘चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून’ ‘गावस्तिष्ठन्ति यास्मिन्स गोष्ठः’ गायों का आवास-स्थान ही गोष्ठ है; व्रज-पद भी गोष्ठ पद का पर्यायवाची है। ‘गाः इन्द्रियाणि; चक्षु, श्रौत्र, त्वक्, आदि इन्द्रिय गो का आवास-स्थान शरीर ही गोष्ठ किंवा व्रज है।’ ‘व्रजात् देहात् पशून् इन्द्रियाणि चारयन्नटति विषयेष्विति,’ जीव पशुस्थानीय इन्द्रियों को व्रजस्थानीय देह से अन्यत्र विषयरूप गोचर-भूमि में अग्रसर करता है। ‘आत्मानां रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। अर्थात इन्द्रियरूप गौओं को चराने हेतु आत्मा विषयरूप गोचरभूमि वन-प्रांतर में जाता है। ‘प्रज्ञया चक्षुःसमारुह्य चक्षुषा सर्वाणि रुपाण्याप्नोति’[2] ‘प्रज्ञा के द्वारा क्षजु पर उपारुढ़ होकर सम्पूर्ण रूपों को, सम्पूर्ण दृश्य को आत्मा ही देखता है। अन्तःकरण की वृत्तियाँ ही तत्-तत् इन्द्रियजन्य विषयाकाराकारित वृत्ति रूप में प्रस्फुटित होती है। उदाहरणतः सूर्यमण्डल पर दृष्टि जाने पर चक्षु की वृत्तियाँ सूर्य-मण्डलाकाराकारित हो गई; उस अन्तःकरण की वृत्ति पर उपारूढ़ हुआ आत्मा भी सूर्यमण्डलाकाराकारित हो गया, अन्त करण की वृत्ति से सूर्यमण्डल की स्फूर्ति हुई। यह वेदान्त की प्रक्रिया है। |