गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 10भगवान के अन्तरंग पार्षद ही लीला-उपकरण है; उनमें प्राकृत कन्दर्पादिकों का सन्निवेश नहीं होता है अतः वहाँ प्राकृत ईर्ष्या, क्रोध, दम्भ, मान, क्षोभ आदिकों का सम्प्रवेश ही सम्भव नहीं, तथापि केवल भगवत-लीलोपयोगी अपूर्व, रसात्मक एवं अलौकिक अनेकानेक भाव ही सम्पूर्णतः अभिव्यक्त होते हैं। वस्तुतः ये सम्पूर्ण भाव निखिल-रसामृत-मूर्ति भगवान के ही रूपांतर मात्र हैं। ‘कृष्ण भाव रस भाविता मतिः क्रीयताम् यदि कुतोऽपि लभ्यते’ यदि कृष्ण भाव-रस भाविता-मति कहीं मिल सके तो अवश्य ही खरीद लो। ‘तत्र मूल्य मपि लौल्यमेकलम्’। असीम व्याकुलता, विह्वलता ही उसका मूल्य है। ‘जन्म कोटिसुकृतैर्नुलभ्यते।’ कोटि-कोटि जन्म-जन्मान्तरों के सुकृत से ऐसी भगवद् विषयक व्याकुलता, विह्वलता प्राप्त होती है। जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य-पुन्ज के प्राकट्य से ही इन सौभाग्यशालिनी, ब्रज-सीमन्तनी जनों में श्रीकृष्ण विषयक क्षोभ उत्पन्न हुआ। इन गोपांगनाओं के लिए सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्, अनन्त ब्रह्माण्ड नायक अखिलेश्वर प्रभु ही उनके परम आत्मीय, प्राणनाथ, प्रियतम हृदयेश्वर हैं। गोपांगनाओं का अन्तःकरण अपने प्रभु के प्रति लोकोत्तर अनुराग से ओतप्रोत है। जैसे, विषयी को सांसारिक विषयों में स्वभावतः ही प्रीति होती है, वैसे ही, इन व्रज सीमन्तनी जनों को भी अपने श्याम-सुन्दर, मदन-मोहन, आनन्द-धन में स्वभावतः ही प्रीति है। यही रागानुराग प्रीति का स्वरूप है। आत्म-कल्याण, विश्व-कल्याण हेतु सर्वाधिष्ठान प्रभु का चिन्तन करना प्राणी मात्र का कर्तव्य है; यही वैधी भक्ति का स्वरूप है। भगवत-स्वरूप मायातीत भी है और माया-विशिष्ट भी है। जैसे आकाश का अनन्त-रूप मेघ शून्य भी है, अंशतः मेघ-मण्डल-समावृत भी है, वैसे ही भगवत् स्वरूप मायातीत भी है और माया-समावृत भी है, जो माया भगवान की नियम्या है, आज्ञाकारिणी है, उसी माया को धारण कर भगवान् क्षोभक स्वरूप में भी रहते हैं। भगवान के इस क्षोभक-स्वरूप से ही भक्त-हृदय में क्षोभ होता है; यह क्षोभ भी अत्यन्त कल्याणप्रद है। भगवान् का यह क्षोभक गुण ही भक्त को भगवत् तुल्य षडैश्वर्य युक्त भगवत्-चरित्रामृत पान में भी विश्रान्त नहीं होने देता। |