गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9अर्थात काम-रूपेण-विख्याता हृद-ग्रन्थि भगवत्-साक्षात्कार से तथा कर्म रूप बन्धन ज्ञानाग्नि से नष्ट हो जाते हैं। भगवत्-कथामृत-पान में निरत व्यक्ति को भक्ति, विरक्त एवं भगवत्- प्रबोध साथ-ही साथ होते चलता है; जैसे मधुर मनोहर पक्वान्न के भक्षण से ‘तुष्टिः पुप्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्’[1] पुष्टि एवं क्षुधा-निवृत्ति प्रत्येक ग्रस के साथ होती चलती है। स्नातन गोस्वामी ‘कल्मषापहम’ का अर्थ करते हैं कि जो व्यक्ति भगवत-कथामृत पान करने में निरत हैं उसके लिए संसार एवं संसार के मूलभूत कारण शुभाशुभ कर्म ही बाधित हो जाते हैं। जैसे देव-भोग्य अमृत रोग-दोष-निवारक एवं बल-पुष्टि का आधान कर्ता है और साथ ही परमामृत रसमय होने के कारण स्वयं ही फल-स्वरूप भी है, वैसे ही भगवत-कथामृत भी संसार एवं उसके मूलभूत कारण शुभाशुभ कर्म का निवारक एवं सर्वार्थं प्रापक है। ‘कविभिः सर्वार्थप्रापकत्वेन ईडितं संस्तुतम’ व्यास, वाल्मीकि आदि महर्षियों ने सर्वपुरुषार्थ साधकत्वेन, सर्वपुरुषार्थ- प्रापकत्वेन आप के कथामृत का संस्तवन किया। ‘श्रृण्वन् रामकथानादं को न याति परांगतिम’ अर्थात-वह कौन व्यक्ति है जो राम-कथा-नाद को पान कर परम-गति को प्राप्त नहीं होगा? तात्पर्य कि आपके कथामृत का पान कर प्राणी निश्चय ही परमगति को प्राप्त होता है; साथ ही ‘पुत्रार्थी लभते पुत्रम् धनार्थी लभते धनम’ पुत्रैषणा, वित्तैषणा आदि विविध लौकैषणा की भी प्राप्ति है। देव-सुधा भी कल्मष-हनन में समर्थ नहीं है अतः कवि कहता है ‘क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान्?’ कथामृत एवं देवसुधा में तुलना करते हुए कविवर शुकदेवजी कहते हैं ‘कहो, कहाँ तो ये कथामृत और कहाँ वह देव-सुधा जैसे महामणि और काँच में कोई तुलना सम्भव नहीं’ वैसे ही भगवत कथामृत और देव–सुधा में भी में भी कोई तुलना सम्भव नहीं क्योंकि भगवत-कथामृत-कल्मषापह है परन्तु देवसुधा को पान करने वाले, नन्दन-वन, कामधेनु एवं कल्पवृक्ष का भोग करने वालों की तो संसार एवं उसके मूलभूत अविद्या-काम-कर्मों की निवृत्ति नहीं होती। श्री पंचशिवाचार्य जी कहते हैं:- स्वल्पसङर सपरिहरः सप्रत्यवभर्ष’ इति, स्वल्पसङरः ज्योतिष्टोमादिजन्मनः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीम0 भा0 11/2/42