गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8भगवन की अनन्तानन्त, अचिंत्य दिव्य शक्तियाँ ही गोपांगनाओं के रूप में प्रकट हुईं; परा प्रकृति की जीव रूपा अनंतानन्त शक्तियाँ ही मूर्तिमती होकर गोपांगना रूप में सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान, परात्पर, प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा में उपस्थित हैं। ‘अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभि विंभूर्तिभिः। अर्थात, प्रत्येक गोपबालक एवं प्रत्येक गाय एवं बछड़े में ब्रह्मा ने शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, तेजोमय दिव्य चतुर्भुज श्रीमन्नारायण साक्षात् विष्णुरूप का ही दर्शन किया। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में चौबीस तत्त्व होते हैं। प्रकृति तत्त्व, महत् तत्त्व, अहं तत्त्व, पंचतन्मात्राएँ एवं षोडश विकार ही चौबीस तत्त्व हैं। प्रति ब्रह्माण्ड की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। ‘अष्टावरण भेद करि जहँ लगि गति रही मोरि।’ अग्निरूपा, अग्निकुमार रूपा, अनादि, अपौरुषेय मंत्र ब्राह्मण की अधिष्ठात्री महाशक्तियाँ, देवांगनाएँ, दण्डकारण्यवासी मुनीन्द्र, ऋषिगण तथा जनकपुर की दिव्यातिदिव्य ललनाएँ जो राघवेन्द्र रामचन्द्र के रूप पर मोहित हुई थीं वे सब भगवान् की ‘मधुरया गिरा वल्गु वाक्यया’ वशीभूत हो भगवत किंकरी बनने की इच्छा से गोपांगना रूप में आविर्भूत हैं। कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड नायिका अखिलेश्वरी, भगवती श्री लक्ष्मी भी श्री भगवत् किंकरी बनने की इच्छा रखती है। गोपांगनाएँ कह रही हैं, ‘हे सखे! अब आप आकर अपने विप्रयोग-जन्य तीव्र-तप से संतप्त अपनी प्रेयसी जनों की मूर्च्छा को प्रत्यक्ष देखें।-‘इमा, इदं’ का प्रयोग मूर्च्छा की प्रत्यक्षता को व्यक्त कर रही है। हे सखे! अपनी प्रेयसी जनों की इस मूर्च्छा को देखने में ही आपका पुष्करेक्षणत्व सफल होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीम. भा. 10। 13। 52-53