गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8‘स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः’[1] हे महाभागाओं तुम्हारा स्वागत है! मैं तुम्हारा कौन प्रिय करूँ? जैसे आपके मुखचन्द्र से निःसृत मधुर, मनोहर तथा श्रेष्ठ विन्यास-युक्त वचनामृत हमारे कर्णपुटों को परमानन्द-प्रदान करते हुए हमारे हृदय में प्रविष्ट कर गया फलतः हमारे हृदय में भी परमानन्द-रस-समुद्र से आप्लावित हो उठे। अब आपके अन्तर्धान हो जाने पर आपके विप्रयोग-जन्य तीव्र-ताप के कारण उस ‘मधुरया गिरा वल्गु-वाक्यया के स्मरण से भीषण उद्वेग होता है और हम मूर्च्छा को प्राप्त हो जाती हैं। ‘विधिकरीरिमाः’ विधि अर्थात् आज्ञा, ‘आदेश; विधानं विधिः’ अर्थात्, आज्ञा का पालन करने वाली ‘विधिकरीरिमाः’ आज्ञा का पालन करने वाली किंकरी दासी व्रजांगनाएँ कह रही हैं, हे पुस्करेक्षण! हम आपकी ‘विधिकरीरिमाः’ आज्ञा का पालन करने वाली दासी हैं अतः दया की पात्र हैं। हम किंकरी जनों को प्राणरक्षार्थ, व्यामोह-निवृत्ति हेतु अदेय-दान में भी आपको संकोच उचित नहीं है क्योंकि आपकी ‘मधुरया गिराविधिकर्यः संजाताः’ अमृत से अधिक मधुर, मनोहर वाणी के वशीभूत हो हम आपकी किंकरी हो गई हैं। मधुसूदन सरस्वती कहते हैंः- ‘अद्वेतवीथीपथिकैरुपास्याः स्वाराज्यसिंहासनलब्धदीक्षाः। अर्थात गोपबंधुओं का विट् ही वह शठ है जिसने अद्वैत वीथी के आचार्य, स्वाराज्य सिंहासन में दीक्षा प्राप्त हमें बलात् अपना दास बना लिया है। परमहंस, परिब्राजकाचार्य, मुनीन्द्र की ही जब ऐसी परिस्थिति है तो इन प्रेममार्ग की आचार्या गोपांगनाओं की स्थिति स्वभावतः अकल्पनीय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीम. भा. 10। 29। 18