गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 270

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 7

‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।[1]

गोपांगनाएँ आर्य-मार्ग को त्याग कर कुलटात्व जैसे मरण से भी कोटि गुणित दारुण दाह तुल्य लांछनों को सहती हुई, सुख-सम्पत्ति को तिरस्कृत करती हुई भी कृष्णानुराग में प्रवृत्त रहीं, अतः ये श्री रुक्मिणी आदि से भी अधिक अनुकम्पनीय हैं।

अस्तु, भक्त के उर-स्थल में भगवत् पदाम्बुजों का धारण ही सर्वानर्थनिर्वहण एवं भगवदानन्द-प्रस्फुटन दोनों ही दृष्टि से सर्वोत्कर्ष का हेतु है।

‘तृणचरानुगं तृणचरैः’ सर्वभोगविवर्जितैः मुनिभिः अनुगीयमानम्’

अर्थात सम्पूर्ण भोगों का त्याग करने वाले ‘वाताम्बुपर्णाशनैः’ वाय-भक्षी, अंबुभक्षी, पर्णाशी, कन्द-मूल फलाशी, योगीन्द्र-मुनीन्द्र, अमलात्मा, परमहंसों द्वारा आप के चरणाम्बुज अनुगम्यमान हैं। तात्पर्य कि आपके चरणांबुज ही सम्पूर्ण कर्म-काण्ड एवं उपासना-काण्ड के महातात्पर्य हैं अतः आप अपने चरणारविन्दों को हमारे उर-स्थल पर विराजमान करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीम. भा. 10/47/61

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
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