गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां गोपांगनाएँ आर्य-मार्ग को त्याग कर कुलटात्व जैसे मरण से भी कोटि गुणित दारुण दाह तुल्य लांछनों को सहती हुई, सुख-सम्पत्ति को तिरस्कृत करती हुई भी कृष्णानुराग में प्रवृत्त रहीं, अतः ये श्री रुक्मिणी आदि से भी अधिक अनुकम्पनीय हैं। अस्तु, भक्त के उर-स्थल में भगवत् पदाम्बुजों का धारण ही सर्वानर्थनिर्वहण एवं भगवदानन्द-प्रस्फुटन दोनों ही दृष्टि से सर्वोत्कर्ष का हेतु है। अर्थात सम्पूर्ण भोगों का त्याग करने वाले ‘वाताम्बुपर्णाशनैः’ वाय-भक्षी, अंबुभक्षी, पर्णाशी, कन्द-मूल फलाशी, योगीन्द्र-मुनीन्द्र, अमलात्मा, परमहंसों द्वारा आप के चरणाम्बुज अनुगम्यमान हैं। तात्पर्य कि आपके चरणांबुज ही सम्पूर्ण कर्म-काण्ड एवं उपासना-काण्ड के महातात्पर्य हैं अतः आप अपने चरणारविन्दों को हमारे उर-स्थल पर विराजमान करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीम. भा. 10/47/61