गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1धरित्री-मण्डल के वृक्ष, लता एवं तृणोद्गति में भगवत्-संस्पर्श-जन्य रोमांच की कल्पना करती हुई गोपाङ्गनाएँ धरित्री से प्रश्न करती हैं, ‘किन्ते तपः क्षिति कृतं बत केशवाङ्घ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गरुहैर्विभासि। अर्थात, धरित्री बहन! तुमने ऐसी कौन महत् तपस्या की है जिसके कारण तुम्हें मदनमोहन, श्यामसुन्दर, व्रजेन्द्रनन्दन के पादारविन्द का संस्पर्श प्राप्त हुआ? धरित्री ने उत्तर दिया, सखि! तुम्हारे व्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर तो कुछ ही समय पूर्व आविर्भूत हुए परन्तु हमारे अंग-प्रत्यंग में तो यह रोमान्चरूप वृक्ष-लता-दूर्वादि तो प्राचीनकाल से ही विद्यमान हैं; एतावता हमारे इस रोमान्चोद्गम का कारण तुम्हारे श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र के पादारविन्द का संस्पर्श कदापि नहीं हो सकता। अस्तु, तुम्हारी यह कल्पना व्यर्थ है। गोपाङ्गना-जन पुनः कहती हैं, हे सखि! मदनमोहन श्रीकृष्णचन्द्र के पादारविन्द-संस्पर्श के बिना यह लोकोत्तर आनन्दोद्रेक कथमपि सम्भव नहीं, वामनावतार के प्रसंग में अथवा उससे भी पूर्व वाराहावतार के प्रसंग में तुमको जो भगवात्-संस्पर्श प्राप्त हुआ, उसी के फलस्वरूप तुमको यह रोमान्च हुआ है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने वराह-वपु धारण कर रसातल में निमग्न् धरित्री का उद्धार किया उस परिरम्भणजन्य आनन्दोद्रेक के कारण ही तुम रोमान्च-कंटकित हो रही हों। ‘आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन’ हे धरित्री बहन! इस अद्भुत रोमान्चोद्गति का एकमात्र कारण भगवत्-संस्पर्श ही हो सकता है; और यह संस्पर्श निस्सन्देह किसी पुण्य-पुन्ज का ही फल है अतः हम तुमसे पूछती हैं कि वह कौन तपस्या है जिसका यह लोकोत्तर फल तुम्हें प्राप्त हुआ है ताकि हम भी तुम्हारी जैसी तपस्या कर भगवत्-चरणारविन्द-संस्पर्श का, श्रीकृष्ण-परिम्भण का सौभाग्य प्राप्त करें। |