गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7अर्थात यदि मेरे बाहु भी तुम्हारे प्रतिकूल करने लग जायँ तो मैं उन बाहुओं को भी तत्काल काट डालूँ। तात्पर्य कि सोपधिक प्रेम की अपेक्षा विधि-निरपेक्ष हेतु फलानुसंधान-शून्य प्रेम का ही उत्कर्ष अधिक है। भक्तों ने भक्ति में भी दो रूप माना है- एक वैधी, दूसरी रागानुगा। विधि से प्राप्त भक्ति वैधी है। ‘विधिरत्यन्त्यमप्राप्तौ’ के अनुसार अप्राप्ति में ही विधि होती है; जहाँ स्वारसिक रागानुगामी प्रवृत्ति नहीं है वहीं विधि की अपेक्षा है। किंबहुना; माता-पिता, गुरुजनों एवं लौकिक विषयों में भी विधि का संस्पर्श है अतः वहाँ भी स्वारसिक प्रीति में कुछ कमी हो जाती है। जहाँ स्वारसिक प्रेम है वहाँ निषेध होता है-जैसे बहते जल में बाँध डालने से वेग उत्कट हो जाता है, वैसे ही स्वाभाविक प्रेम-प्रवाह भी निषेध से उत्कट रूप धारण कर लेता है। इस रागानुगा प्रीति का सम्पादन करने हेतु ही भगवान् अलौकिक, आप्राकृत, अग्राह्य एवं अदृश्य होते हुए भी लौकिक, प्राकृत, ग्राह्य एवं दृश्यवत् प्रकट होते हैं; सम्पूर्ण विश्व के स्रष्टा होते हुए भी पुत्रवत् तथा सबके परमपति होते हुए भी उपपति रूप से भी प्रकट होकर विभिन्न विषयों में लिप्त मन को विषयों से प्रत्यावर्तित कर अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। एकमात्र शुद्ध प्रेममार्ग का अनुगामी भक्त ही सर्वाधिक अनुकम्पनीय है। भगवान के प्रति आत्मीय भाव भी स्पृहणीय एवं महत् है तथापि विधिग्रस्त है; उदाहरणतः लक्ष्मण की अनुपम सेवा, भरत का अनुपम त्याग, माता यशोदा का अतुल वात्सल्य तथा रुक्मिणी आदिकों का अनन्य अनुराग आदि; इन सब में आत्मीयता के कारण कर्तव्य है; यह कर्तव्य-भावना ही सोपाधिक प्रेम का अपकर्ष है। नन्द रानी, व्रजेन्द्रगेहिनी यशोदा रानी अपवाद भी हैं; यशोदा रानी का अपने पुत्र बाल-कृष्ण के प्रति सोपाधिक प्रेम, वात्सल्य-भाव भी है तथापि उससे कोटि गुणा अधिक भगवान् श्रीकृष्ण आनन्द-कन्द के प्रति निरुपाधिक प्रेम, स्वाभाविक प्रेम है। विधि-निषेध रहित स्वाभाविक प्रेम में कर्तव्य की भावना नहीं अपितु लोकरीति से वैपरीत्य है। |