गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 268

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 7

वे उत्तर देती हैं, हे कान्त! हम तो अपनी हृच्छयाग्नि अपनी स्मरव्यथा उपशमन की ही प्रार्थना करती हैं। भगवत्-सम्मिलन विषयणी उत्कट उत्कंठा ही सोत्कट सानुराग स्मर है; ‘सामीप्येन सानुरागस्मरणमेव स्मरः’ दृढ़ अभिनिवेश्ष युक्त सानुराग स्मरणजन्य सामीप्य ही स्मर है। यह स्मर ही हृच्छय है। ‘हृदिशेते हृच्छयः’ हृदय में शयन करने वाला हो हृच्छय है। गंगा-स्नान ही माहात्म्यातिशय-संयुक्त है: तज्जन्य पाप-ताप-निवृत्ति, मनोमल-निवृत्ति आदि आनुसंगिक फल हैं, इसी तरह प्रभु-पादम्बुज-सम्मिलन-दृष्ट्या ही सम्पूर्ण आयास अपेक्षित हैं; प्रभु के वीर्यातिरेक जनित कृपा, रक्षण, सौभाग्यातिशय आदि तो स्वाभावतः ही प्राप्त हो जाते हैं। पूर्व प्रसंगों में बताया जा चुका है कि बालपन में ही व्रजांगनाओं के अंग-अंग में सांग श्यामांग समाविष्ट हो चुके थे; जहाँ अंग-अंग में सांग श्यामांग समाविष्ट हों वहाँ अनंग-संचार सर्वथा ही असम्भव है। एकमात्र शुद्ध प्रेम-रस में तन्मय भक्तों के लिए भगवान् भी कह उठते हैं।

‘अनुज राज संपति वैदेही। देह गेह परिवार सनेही।
सबमम प्रिय नहिं तुम्हहिं समाना। मृषा न कहऊ मोर यह बाना।।’[1]


‘न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकरः।
न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्।।’[2]

भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कह रहे हैं, ‘हे उद्धव! आत्मयोनि ब्रह्मा, मेरा ही स्वरूप शंकर, संकर्षण, श्री, रुक्मिणी, आदि भी मुझको उतने प्रिय नहीं हैं; इतना ही नहीं, मेरा आत्मा भी मुझको वैसा प्रिय नहीं है, जैसे तुम हो।’ सनकादिकों के सम्बन्ध में भागवत् कथन है;

‘छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्’।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, उत्तर 15/7-8
  2. श्री. भा. 11/14/15
  3. श्री. भा. 3/16/6

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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