गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7‘नलिनसुन्दरं नाथ ते पदं’ हे नाथ! आपके चरणारविंद नलिनादपि सुन्दर हैं; इन निरावरण चरणारविन्दों से आप वृन्दाटवी में गोचारण करते हुए यत्र-तत्र भ्रमण करते हैं। इन निरावरण चरणों में वृन्दावन के कुशकाश तृण गड़ते होंगे। आपके चरणारविन्दों की कोमलता के कारण ही आपकी माता यशोदा ने भी आपको निरावरण-चरणों से भ्रमण करने के लिए वर्जन किया था; परन्तु गौ ही आपकी इष्ट देवता हैं अतः आप भी अपने इष्ट देवता की भाँति ही निरावरण चरणों से भ्रमण करते हैं। गौओं के चलने से आप पर जो धूल उड़ती है उसी को आप गंगा-स्नान तुल्य मानते हैं। तात्पर्य कि विशेष अनुकम्पा वशात् ही भगवान श्रीकृष्ण ‘तृणचरानुगं’ हैं। ‘श्रीनिकेतन’ जैसा विशेषण विशेष सौभाग्य का सूचक है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड की ऐश्वर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मीजी जिन चरणों में निवास करती हैं वही ‘श्री निकेतन’ है। श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्। यस्याः स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयास स्तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः।।[1] अर्थात, भगवान् के मंगलमय वक्षस्थल में निस्सपत्न पद प्राप्त होने पर भी श्री महालक्ष्मी जिन चरणों में तुलसी सपत्नी के संग रहना भी श्रेष्ठतर समझती हैं उन अपने कोमलातिकोमल, सुन्दर सुरभियुक्त श्रीनिकेतन चरणों को हे नाथ! आप हमारे उरस्थल पर विराजमान करें। श्रीधर स्वामी की व्याख्यानुसार-‘सौभाग्येन श्रियो निकेतनं वीर्यातिरेकेण’ सौभाग्यातिशय श्री रूप है। गोपांगनाएँ कह रही हैं-‘हे कान्त! आप अपने इन श्री निकेतन पदाम्बुजों को हमारे उर-स्थल पर धारण करें। आपके पदाम्बुजों से सम्पृक्त हमारे उरोज भी दिव्याम्बुज-मंडित कनक-कलशवत् सुशोभित हो उठेंगे। हे कान्त! कालिय नाग के जन्म-जन्मान्तर के पुण्यवशात् ही उसके फ़णाओं पर भी नृत्य करने वाले इन चरणारविन्दों को हमारे उरस्थल पर धारण करें ताकि हमारे हृच्छयाग्नि एवं सम्पूर्ण पाप-तापों का अपनोदन हो जाय।’ गोपांगनाओं में पुनः श्रीकृष्ण-कृत प्रश्न का स्फुरण होता है; वे अनुभव करती हैं मानो भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं, हे व्रजांगनाओ! पापहन्तृत्व, श्रीनिकेतनत्व, तृणचरानुगत्व आदि कृपापेक्षित, सौभाग्यातिशयापेक्षित ही है; अस्तु, अपने उरस्थल में हमारे पादाम्बुज-विन्यास द्वारा क्या तुम लोग हमारी कृपा एवं तज्जन्य सौभाग्य की ही आकांक्षा करती हो?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीम. भा. 10/29/37