गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7श्रीकृष्ण परमात्मा के मधुर, मनेाहर, मंगलमय, विग्रह के ध्यान से उनके पादारविन्दों के निरन्तर अनुसन्धान से महतातिमहत् पापपुंज का भी प्रायश्चित एवं समूल उन्मूलन हो जाता है। अस्तु, हे कान्त! आप अपने सर्वतापपनोदक पादारविन्द को हमारे उरस्थल पर विन्यस्त करें; हमारे उरस्थल पर आपके पदारविन्द विन्यास से कूप-खनक-न्यायतः हमारे हृत्ताप की उपशान्ति एवं सम्पूर्ण दोषों का निराकरण होगा। गोपांगनाएँ पुनः अनुभव करती हैं कि श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ‘हे गोपांगनाओ! तुम्हारे उरोज अत्यन्त कठोर हैं; हमारे पाद-पंकज अत्यन्त कोमल हैं; अतः तुम्हारे उर स्थल पर अपने पाद-पंकज विन्यस्त करने से हमको अत्यन्त पीड़ा होगी।’ उत्तर में वे कह रहीं हैः हे कान्त! ‘तृणचरानुगं’ आप के पादारविन्द तृणचर पशुओं का अनुगमन करने वाले हैं। आप परम कृपालु हैं; यही कारण है कि आप गाय-बछड़ों को चराने हेतु वृन्दाटवी में निरावरण चरणों से भ्रमण करते हैं। वृन्दाटवी के कुश, काश एवं कंटक आपके इन निरावरण कोमल चरणारविन्दों में गड़ते होंगे: तब भी दयालुता-परवश आप इन पशुओं का भी पालन करते हैं। हे प्रियतम! यद्यपि हमारे उरोज अत्यन्त कठोर हैं तथापि वृन्दाटवी के कुश-काश-कंटकादि से तो अधिक ही सुगम्य हैं। गोपांगनाओं में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा किये गये प्रश्नों का पुनः पुनः स्फुरण होता है। वे अनुभव करती हैं मानों श्यामसुन्दर कह रहे हैं, ‘हे वनचारी! गोपालियो! तुम अनभिज्ञा होः तुम्हारे उर-स्थल पर हमारा पदविन्यास क्यों कर सम्भव हो सकता है?’ इसका उत्तर देती हुई वे कह रही है,’ ‘हे सखे! तृणचर पशुओं से अधिक अज्ञ और कौन हो सकता है? तथापि स्वानुग्रहवशात् ही आप उनकी भी रक्षा करते हुए वृन्दाटवी में निरावरण चरणारविन्दों से उनका अनुगमन करते हैं। एतावता हम अनभिज्ञा वनचरी गोपालियों की अपने विप्रयोग-जन्य तीव्र-सन्ताप से रक्षा हेतु हमारे उर-स्थल में आपके पद-पंकज का विन्यास असंगत न होगा। योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलात्मा, परमहंस, तत्त्वदर्शी, भक्ताग्रण्य वही है जिसका उर-स्थल भगवत्-पादारविन्दों से समलंकृत हो गया है। लोकातीत दृष्टि कोण से गम्भीर विचार करने पर ही इस भावमय गीत की सम्यक् अर्थानुभूति सम्भव हो सकती है।’ |