गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7भारतवर्ष के श्रोत, स्मार्त्त धर्म का रक्षण वर्णाश्रम-व्यवस्था पर आधारित है। भागवतादिकों के प्रमाण से भारतवर्ष का परिमाण नौ हजार योजन है; इस परिणाम के आधार पर वर्तमान समस्त भूमण्डल ही भारतवर्ष के अन्तर्गत आ जाता है। ‘श्रीमद्भागवत’ में प्राप्त वर्णन के अनुसार ही अन्य अष्ट वर्षों के निवासियों के लक्षण दिव्य हैं; अतः प्रतीत होता है कि वे अष्ट वर्ष वर्तमान में अदृष्ट हैं। जैसे अतल, वितल, सुतल, तलातल आदि वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं अथवा जैसे स्वर्लोक आदिकों का स्थूल रूप होता ही नहीं वैसे ही उपर्युक्त अष्ट-वर्ष भी वर्तमान में अदृष्ट ही हैं। जैसे व्यापक होते हुए भी आत्मा का हृदय में ही विशेष रूप से प्राकट्य होता है, वैसे ही व्यापक धर्म तथा शास्त्र एवं उनके पालक भगवान् का भारत में विशेष रूप से प्राकट्य होता है। भारत के ही ज्ञानालोक और धर्म के प्रभाव से विश्व अवलोकित एवं धर्मप्रमाणित होता है। मनु कहते हैं, ‘एतेद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रहजन्मनः। अर्थात, इस देश में उत्पन्न ब्राह्मण से पृथ्वी मंडल के संपूर्ण व्यक्ति अपने धर्म को सीखें। जैसे शरीर के हस्त-पादादि अन्यान्य अंगों के शुष्क हो जाने पर भी जीवन रह सकता है, परन्तु हृदय के शुष्क हो जाने पर जीवन नहीं रह सकता वैसे ही पृथ्वी-मंडल के अन्य देशों के धर्म एवं ईश्वर से च्युत हो जाने पर भी विश्व रह सकता है परन्तु विश्व-हृदय भारत के धर्म-शून्य होने पर विश्व का संहार निश्चित है। एतावता भारत के धर्म और शास्त्र से विमुख होते ही विश्व-नाश की सम्भावना हो जाती हैै। जैसे सर्वाग की अपेक्षा हृदय की रक्षा का ध्यान अधिक होता है वैसे ही विश्व-हृदय भारत के धर्म एवं शास्त्रों की रक्षा हेतु ही यहाँ भगवान् का बारम्बार प्राकट्य होता है। शास्त्रों को देखने से विदित होता है कि स्वर्गादिक के समान भूलोक में भी बहुत से खण्ड कर्म-भूमि नहीं अपितु भोग-भूमि ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनुस्मृति 2। 2