गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत।’ वेद-वेदांग ब्रह्म का ही अभिधान करते हैं, ब्रह्म का ही विधान करते हैं और अनात्म-प्रपंच भूत अंश का निषेध कर भगवत्स्वरूप का ही अवशेष करते हैं। अस्तु, उपक्रम, उपसंहारादि षडविध लिंगों के द्वारा सम्पूर्ण वेद-वेदांगों का महातात्पर्य परात्पर परब्रह्म ही है। ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’[2]। सब वेद परात्पर परब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं अतः श्रुतियाँ कह रही हैं ‘भवत्किंकरी’, हे प्रभो हम आपकी किंकरी हैं। जैसे किसी महाराजाधिराज चक्रवर्ती नरेश के जागने के समय बंदी गण स्तुति गान करते हैं वैसे ही, अनन्त-ब्रह्माण्ड नायक, ब्रह्माण्डाधिपति अखिलेश्वर प्रभु के जागने के अवसर पर श्रुतियाँ स्तुति करती हुई भगवत प्रबोधन करती हैं। प्रलयकाल ही रात्रि है; प्रलयकाल में भगवान् शयन करते हैं; प्रलयान्तर पुनः सृष्टि काल, प्रभात होने पर श्रुतियाँ भगवत् प्रबोधन करती हैं। ‘जलरुहाननंचारु दर्शय’ भूः, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः, सत्य तथा तल, अतल, वितल, तलातल आदि चतुर्दश भुवनात्मक संसार रूप पद्म भगवान् श्री विष्णु की नाभि से ही उत्पन्न हुए हैं। सच्चिदानन्द प्रभु ही चतुर्दश भुवानात्मक जलरूह को सत्ता एवं स्फूर्ति मत्ता प्रदान करने वाले मुख्य भाग, ‘आनन’ है अतः ‘जलरुहानन’ हैं। किसी भी प्राणी के शरीर में उसका मुख ही मुख्य भाग होता है।‘जासु सत्यताते जड़ माया! भास सत्य इव मोह सहाया।’[3] हे प्रभो! जो आपके ‘निज जन हैं, उपासक हैं, भक्त हैं उनको चतुर्दश-भुवनात्मक जलरूह को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले अपने ‘आनन’ को स्वानुग्रहवशात दर्शन दें; उनके लिये प्रत्यक्ष हो जावें; उनको भगवत साक्षात्कार प्राप्त हो। |