गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 244

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

निष्कर्ष की भगवत्-कर्तृक भक्त-भजन, भगवदानुग्रह से ही जीव भगवदुन्मुख हो पाता है। गोपांगनाएँ भी कह रही हैं, हे सखे! हम तो आपको खोजती हुई वन-वन भटक रही हैं तथापि जब तक आप स्वयं ही अनुग्रह कर प्रत्यक्ष नहीं हो जाते तब तक हम आप के दर्शन भी क्योंकर पा सकतीं हैं। अतः स्वानुग्रह पूर्वक आप शीघ्र ही प्रत्यक्ष हो जावें।

‘सोहं तवाङ्घ्रयुगतोस्म्यसतां दुरापं।
तच्चाप्यहं भगवदनुग्रहईशमन्ये।।
पुंसां भवेत् यर्हि संसरणापवर्गः।
त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्।।’[1]

अर्थात हे प्रभो! हे नाथ! आपके अनुग्रह से ही हम आज आप के मंगलमय चरणार विन्दों की शरण आये हैं। जब प्राणी के संसरण से अपवर्ग का अवसर उपस्थित होता है तब आपको कृपा से ही सत्-पुरुषों का आश्रय प्राप्त होता है; सत्-पुरुषों द्वारा प्रेरित प्राणी भगवदुन्मुख होकर संसार-दुःख-दावानल से मुक्त हो जाता है।

‘बिनु हरि कृपा मिलहीं न संता।
अब मोंहिमा भरोस हनुमंता।।’

और-

‘जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।’[2]

जन्म-जन्मान्तर के अपूर्व-वश भगवदनुग्रह एवं भगवदनुग्रह वश प्रभु-चरणारविन्दों में उत्तरोत्तर प्रीति होती चलती है। जीव के स्वकर्म जन्य अपूर्व तथा भगवदनुग्रह में परस्पर हेतु हेतुमद्भाव सम्बन्ध बन जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री. भाग. 10। 40। 28
  2. मानस, सुन्दर 6। 3। 4

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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