गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6हे सखे! आप ‘व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां’ हैं, व्रज योषितांओं के ही विशेषतः प्रेरक हैं; प्राणों के प्राण हैं। हम व्रज-वनिताएँ अपने अन्तःकरण, अन्तर्मन एवं रोम-रोम को आप में समर्पित कर चुकी हैं। हम आपकी किङ्करी हैं। इतना कह चुकने पर वे पुनः अनुभव करती हैं मानों श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘हे सखियों! हम तुम्हारे स्वकीय, कांत तो नहीं हैं; परकीय प्रेमास्पद में ऐसे उत्कट प्रेम का होना अनुचित है। इस सर्वथा अनौचित्य-भाव का तुमको विशेष गर्व है, यह भी अपराध है। रास लीला के अन्तर्गत तुम लोगों को अहंकार हुआ तब तुम ही हम से अपने नूपुर-बाँधने के लिये कहने लगी; अब अपने को किंकरी कह रही हो। हे व्रजसीमन्तजनो! यह भाव-परिवर्तन भी अनुचित है।’ इसका समाधान करते हुए वे उत्तर दे रही हैं, हे सखे! ‘ईरयति इति ईराः’ आप सर्वप्रेरक हैं, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि जीव की सम्पूर्ण गति-विधि, प्रवृत्ति, निवृत्ति सब अन्तर्यामी मूलक होते हैं। सर्व-प्रेरक की प्रेरणा-वशीभूत ही विश्व् की गति-विधि, प्रवृत्ति सम्भव है। ‘बोले विहसि महेश तब, ज्ञानी मूढ़ न कोई। इस संसार में न कोई ज्ञानी है न कोई मूढ़; सवान्तर्यामी, सर्व-प्रेरक भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र, पूर्णतम पुरुषोत्तम जब जिसको जैसी प्रेरणा दें, तब वह वैसा ही हो जाता है। ‘अज्ञो जन्तुरनीशो य मात्मनः सुखदुःखयोः। |