गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6राम में प्रेम हो जाने पर सम्पूर्ण संसार ही नीरस हो जाता है। ‘कामपूरोस्मयहंनृणाम्’[1] राम ही प्राणी के सम्पूर्ण काम को पूर्ण करने वाले हैं। राम ही वह वांछाँ-कल्पतरु है जो समस्त प्राणियों की समस्त वांछाओं की अशेष-पूर्ति करने में समर्थ हैं। ‘नमो नवघनश्यामकाम-कामितदेहिने। अर्थात- नवनील-नीरद तुल्य कान्ति मान्, कोमल, दिव्य सौगन्ध-पूर्ण श्री अंग है तथा समस्त कमनीयता के अधिष्ठाता, भगवान् मूर्तिमान् काम को भी जिसकी कामना नित्य बनी रहती है उस नव घनश्याम को नमस्कार है। धन की प्राप्ति की आकांक्षा से आने पर दीन-दरिद्र ब्राह्मण सखा सुदामा के तंदुल को चबा जाने वाले कमलापति नवनील घनश्याम को नमस्कार है। गोपांगनाएँ अपने श्याम-सुन्दर श्रीकृष्ण से प्रार्थना कर रही है ‘व्रजजनार्तिहन्’ हे सखे! आप व्रजजनार्ति के नाशक हैं। हम भी व्रजांगनाएँ, व्रज सीमन्तनी जन ही हैः हमारी भी आर्ति का हनन आप का कर्तव्य है। तब, उनमें भगवत्-कृत प्रश्न का प्रबोध होता है; वे अनुभव करती हैं मानों श्रीकृष्ण कह रहे हैं; हे सखी जनों! ‘ब्रजजनानाम् आर्तिंहत्वान् इति व्रजजनार्तिहन्।’, व्रजजनों को विप्रयोग-जन्य ताप से हनन करने वाला ही व्रजजनार्तिहन् है। अथवा ‘हनहिं सा गत्यो; व्रजजनानाम् आर्तिहन्ति, गमयति प्रापयति, इति व्रजजनार्तिहातत्सम्बुद्धौ’ व्रजजनों को पीड़ा देने वाला ही ‘व्रजजनार्तिहा’ है अतः हे व्रज सीमान्तनी जनों तुम लोगों की प्रार्थना असंगत है; हम तो व्रजवासियों के पीड़क ही हैं। उत्तर देती हुई वे कह रही हैं, ‘हे सखे! व्रज जनार्तिहन् पद का स्वाभाविक अर्थ त्याग कर आप द्राविड़ प्राणायाम से ही ऐसा अनुचित अर्थ संपादित कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री. वा. 7। 9। 52