गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 233

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

‘निरुप्रदवभूतार्थस्वभावस्य विपर्ययैः।
न बाधो यत्नवत्त्वेपि बुद्धेस्तत्पक्ष-पाततः।।’

अर्थात्-मिथ्या-ज्ञान विजृम्भित स्वाभाविक प्रत्यय द्वारा निरुपद्रव भूतार्थ विषयक यथार्थ ज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान, आत्म-ज्ञान का बोध सम्भव नहीं क्योंकि बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी होती है। ‘तत्त्व पक्षपातो हि स्वभावोधियाम्’। ब्रजांगनाएँ प्रेममार्ग की आचार्या हैं। आर्यजनोंचित, शास्त्र-प्रतिपादित मार्ग की प्रस्तावना, शास्त्रार्थ का संचयन कर लोक-व्यवहार में प्रतिष्ठापित कर स्वयं भी तदनुसार आचरण करने वाला ही आचार्य है।

‘स्वयमाचरते यस्मादाचारे स्थापयत्यापि।
आचिनोति च शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन चोच्यते।।5।।[1]

‘वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पंचमी।
एतानि मान्यस्थानानि।।’[2]

उक्त पूजा के स्थान हैं अतः आचार्य पूज्य है; एतावता गोपांगनाएँ भी पूज्य हैं; साथ ही आदर्श-रूपा भी हैं। गोपांगनाएँ तो उपलक्षण हैं, वस्तुतः जीव-मात्र ही भगवद्न्मुख होकर सम्पूर्ण लौकिक क्षुद्र सुखों से विरक्त हो परमानन्द-परिप्लुत हो जाता है। ‘हारे को हरि नाम’ जैसी भावना यहाँ सर्वथा असंगत सिद्ध होती है।

‘जो मोहि राम लागते मीठे।
तौ नवरस षट्रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे।।’[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लिंग पुराण 1। 10
  2. म. 2। 136
  3. विनय-पत्रिका-169

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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