गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6‘निरुप्रदवभूतार्थस्वभावस्य विपर्ययैः। अर्थात्-मिथ्या-ज्ञान विजृम्भित स्वाभाविक प्रत्यय द्वारा निरुपद्रव भूतार्थ विषयक यथार्थ ज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान, आत्म-ज्ञान का बोध सम्भव नहीं क्योंकि बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी होती है। ‘तत्त्व पक्षपातो हि स्वभावोधियाम्’। ब्रजांगनाएँ प्रेममार्ग की आचार्या हैं। आर्यजनोंचित, शास्त्र-प्रतिपादित मार्ग की प्रस्तावना, शास्त्रार्थ का संचयन कर लोक-व्यवहार में प्रतिष्ठापित कर स्वयं भी तदनुसार आचरण करने वाला ही आचार्य है। ‘स्वयमाचरते यस्मादाचारे स्थापयत्यापि। उक्त पूजा के स्थान हैं अतः आचार्य पूज्य है; एतावता गोपांगनाएँ भी पूज्य हैं; साथ ही आदर्श-रूपा भी हैं। गोपांगनाएँ तो उपलक्षण हैं, वस्तुतः जीव-मात्र ही भगवद्न्मुख होकर सम्पूर्ण लौकिक क्षुद्र सुखों से विरक्त हो परमानन्द-परिप्लुत हो जाता है। ‘हारे को हरि नाम’ जैसी भावना यहाँ सर्वथा असंगत सिद्ध होती है। ‘जो मोहि राम लागते मीठे। |