गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6एकमात्र प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र ही सम्पूर्ण काम का निराकरण करते हुए आनन्द-समुद्र उद्बुद्ध करने में समर्थ हैं। अपने प्राणधन प्रियतम श्रीकृष्णचन्द्र के पादारविन्द, हस्तारविन्द, मुखारविन्द, दामिनी-द्युति-विनिन्दक पीताम्बर एवं अन्य दिव्यातिदिव्य वसन-भूषण अलंकारादि के सौन्दर्य माधुर्य सौरस्य-रसास्वादन में तन्मय गोप बालाओं को स्वभावतः तत्त्व-बोध की अनुभूति होती है और वे स्वयं भी आत्मकामता, पूर्णकामता, परम-निष्कामता का अनुभव करने लगती है। ‘विष्णु-पुराण’ में एक कथा आती है। भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये; अपने प्रेयान् को खोजती गोपांगनाएँ वन-वन में भटक रही हैं; अचानक किसी निकुंज में उनको भगवान् के शंख-चक्र गदा-पद्म धारी, दिव्यातिदिव्य पीताम्बर तथा मुकुट-कीरीट धारी, कोटि-कोटि सूर्यनारायण-तुल्य प्रकाशयुक्त तेजामय स्वरूप श्रीमन्नारायण विष्णु का दर्शन हुआ। इस दिव्य स्वरूप के प्रति सादर सविनय नमस्कार करती हुई गोपांगनाएँ अपने गोपाल श्याम सुन्दर के सम्मिलन का वरदान माँगकर पुनः उनकी खोज में चल पड़ती हैं। प्रभु का दिव्यातिदिव्य तेजोमय स्वरूप भी उन प्रेम-विह्वला गोपालियों को क्षणार्ध के लिए भी आकर्षित न कर सका। ज्ञानी उद्धव के प्रति भी वे अपने प्रेम की तन्मयता का ही प्रदर्शन करती हैं। सूरदास जी लिखते हैं, वे कहती हैं ‘उधौ मन न हुए दस बीस को आराधै ईस।’ गोपांगनाओं के लिये उनके गोपाल श्याम-सुन्दर ही ‘हारिल की लकड़ी’ हैं। तुलसीदासजी कहते हैं- ‘जहाँ काम तहाँ राम नहीं। जहाँ राम तहाँ काम नहीं। बौद्ध शंका करते हैं कि जैसे भड़भूजे के भाड़ में पड़े हुए अन्न के बीज या अस्तित्व ही संदिग्ध है; उसके पल्लवित-पुष्पित एवं फलित होने की आशा ही व्यर्थ, वाचारम्भण मात्र है, वैसे ही, काम-क्रोध, लोभ-मद-मोहादि से अभिभूत अन्तःकरण में ज्ञान-विज्ञान के संस्कार का उद्बुध होकर दृढ़ एवं अनन्य होने की कामना भी सुखद कल्पना मात्र है। बौद्ध-ग्रन्थों में ही इस शंका का समाधान भी प्राप्त हो जाता है। कहते हैं, जैसे प्रकाश की प्रथम रश्मि-प्रवेश के साथ ही साथ युग-युगान्तरों से जमा हुआ अंधकार लुप्त हो जाता है वैसे ही मिथ्या-ज्ञान के आधार पर स्थित संसार-विषयक प्रत्यय स्वरूप अन्तस्थ घोर अन्धकार भी भगवत्-शक्ति, भगवत्-विज्ञान के संस्कार रूप प्रथम प्रभा-प्रवेश के साथ ही साथ निर्मूल हो जाता है। धर्मकीर्ति की कारिका है। |