गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 231

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं:-

‘कान्तादिविषयेप्यस्ति कारणं सुखचिद्घनम्।
कार्याकारतया भाने प्यावृतं मायया स्वतः।।11।।
सदज्ञातंच तद्ब्रह्म मेयं कान्तादिमानतः।
मायावृतितिरोभावे वृत्त्या सत्त्वस्थया क्षणम्’।।12।।[1]

अर्थात- तत्त्व-साक्षात्कार, अधिष्ठान-बोध होने पर काम्य-पदार्थ के विषय प्रतीति का ही बोध हो जाता है। उदाहरणतः काम्य-पदार्थ घट की सत्ता का बोध होने पर घट ही घटाविच्छिन्न अनन्त चैतन्य स्वरूप हो गया; अतः घटविषयिणी कामना भी घटाविच्छिन्न-चैतन्योपक्षित अनन्त चैतन्य में सम्मिलित हो जाती है।

‘जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सबकै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहि मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसे।।[2]

संसार के विभिन्न सम्बन्ध एवं उनकी ममता ही अनेकानेक कामनाओं का मूल है। सांसारिक सम्बन्धों में बिखरी इस सम्पूर्णं ममता-प्रीति की अनेक सूत्रमयी रस्सी बनाकर प्रभु चरणों में बाँध देने पर विभिन्न कामनाओं का मूल ही उन्मूलित हो जाता है। तत्त्व-बोध से संसार की अनित्यता का भान होने पर तत्-तत् पदार्थ विषयिणी कामनाएँ भी स्वभावतः ही भगवदुन्मुखी होने लगती है। भगवदुन्मुखी प्रवृत्तियों में क्रमशः दृढ़ता एवं अनन्यता आने पर परिणामतः अंतकःरण, अंतरात्मा दशो इन्द्रियाँ, रोम-रोम सम्पूर्ण ही अनन्तानन्त अपार सुधासार से ओत-प्रोत हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री भगवद् भक्ति रसायन (1। 11-12)
  2. ‘मानस’, सुन्दर काण्ड

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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