गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं:- ‘कान्तादिविषयेप्यस्ति कारणं सुखचिद्घनम्। अर्थात- तत्त्व-साक्षात्कार, अधिष्ठान-बोध होने पर काम्य-पदार्थ के विषय प्रतीति का ही बोध हो जाता है। उदाहरणतः काम्य-पदार्थ घट की सत्ता का बोध होने पर घट ही घटाविच्छिन्न अनन्त चैतन्य स्वरूप हो गया; अतः घटविषयिणी कामना भी घटाविच्छिन्न-चैतन्योपक्षित अनन्त चैतन्य में सम्मिलित हो जाती है। ‘जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।। संसार के विभिन्न सम्बन्ध एवं उनकी ममता ही अनेकानेक कामनाओं का मूल है। सांसारिक सम्बन्धों में बिखरी इस सम्पूर्णं ममता-प्रीति की अनेक सूत्रमयी रस्सी बनाकर प्रभु चरणों में बाँध देने पर विभिन्न कामनाओं का मूल ही उन्मूलित हो जाता है। तत्त्व-बोध से संसार की अनित्यता का भान होने पर तत्-तत् पदार्थ विषयिणी कामनाएँ भी स्वभावतः ही भगवदुन्मुखी होने लगती है। भगवदुन्मुखी प्रवृत्तियों में क्रमशः दृढ़ता एवं अनन्यता आने पर परिणामतः अंतकःरण, अंतरात्मा दशो इन्द्रियाँ, रोम-रोम सम्पूर्ण ही अनन्तानन्त अपार सुधासार से ओत-प्रोत हो जाता है। |