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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 6
‘वीरैः शूरा विजेतव्याः’ शूर पर विजय प्राप्त करना ही वीरों की वीरता है। प्रबलतम बाह्य शत्रु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है परन्तु काम-क्रोधादिक अन्तः शत्रुओं पर विजय पाना ही वास्तविक शूरता है। अन्तः शत्रुओं में भी काम प्रबलतम है; स्वनिष्ठ काम पर विजय पाना ही सर्वोत्कृष्ट वीरता है; अन्य निष्ठ काम पर विजय पाना, उत्कृष्टाति-उत्कृष्ट वीरता है। योगीन्द्र, मुनीन्द्र अमलात्या, परमंहस अन्तर्मुख होकर भगवद्-ध्यान के प्रभाव से स्वनिष्ठ काम को उपशांत कर लेते हैं तथापि वे भी अन्य-निष्ठ काम का उपशमन नहीं कर पाते। जीव-मात्र अपूर्ण है अतः जीव में प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है।
उदाहरणः किसी एक पुरुष की कई पत्नियाँ हों तो उनमें परस्पर द्वेष, भाव बना रहता है क्योंकि वह सबकी वांछाँ पूर्ति नहीं कर सकता; परन्तु पुण्य-सलिला गंगा से हजारों लाखों लोग प्रतिदिन हजारों लाखों कलश जल भरें तो भी भगवती गंगा का जल कभी न्यून नहीं होता अतः उसमें किसी को प्रतिस्पर्धा नहीं होती। इसी तरह, अनन्त ब्रह्माण्ड के अनन्तानन्त प्राणी भी यदि अचिंत्यानन्द, परमानन्द सुधा-सिंधु भगवान का भजन करते हुए आनन्द सुधा से अपना-अपना कलश भरते रहें तब भी भगवत्-स्वरूप सदा ही अच्युत ही रहता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक अपने सम्प्रदाय की वृद्धि चाहता है।
कामित पदार्थ की सत्ता का अपलाप कर देना ही कामोपशान्ति का शुद्ध मार्ग है। सम्पूर्ण संसार ही अविचारतः रमणीय है। काम्य पदार्थ का विश्लेषण करने पर पदार्थ की सत्ता लुप्त हो जाती है। ‘वाचारम्भणं विकारो नामधेयम्’[1]-केवल मृत्रिका ही सत्य है; घटादि सम्पूर्ण विकार वाचारम्भण मात्र है। सम्पूर्ण संसार ही वंध्या-पुत्र किंवा रव-पुष्पवत् कल्पना मात्र है।
‘पृथिवी रत्नसम्पूर्णा हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
नालमेकस्य तत्सर्व मितिमत्वा शमं व्रजेत्।।’
‘यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्।।’[2]
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