गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6वल्लभाचार्यजी कहते हैं, ‘नहि धर्मोऽपि हृदन्यत्र तिष्ठति’ मन के अतिरिक्त धर्म और कहीं नहीं रहता; मन ही धर्म का अधिष्ठान है। भगवत् साक्षात्कार, भगवद्-मुखकमल मनोहर है, मन को हरण कर लेने वाला है। श्रुति-वचन है, काम, श्रद्धा, अश्रद्धा, ह्री, श्री, धी, आदि सब मन के कार्य हैं। स्मय भी मन का धर्म है; अस्तु मन के न रहने पर मन का धर्म भी न रह जायगा। एतावता हे सखे! हमारे स्मय-ध्वंसन हेतु अन्तर्धान होना उचित नहीं; इस मनोहर मुखारविन्द के दर्शनमात्र से ही हमारे स्मय का अपनयन हो जायगा। विश्वनाथ चक्रवर्ती अर्थ करते हैं, हे सखे! ब्रह्मादिकों पर विजय प्राप्त कर जिसको अत्यन्त दर्प हो गया है ऐसे कन्दर्प के दर्प को भी दलित कर देने में आप अत्यन्त दक्ष हैं। हमारा दर्प तो हमारे सौभाग्यातिशय का ही द्योतक है। हम मानिनी हैं। मानिनी के मान को ही अनुचित मानकर आप अन्तर्धान हो गए? अथवा एक भाव यह भी है कि प्रणय-कोपवशात् मानिनी नायिकाएँ ‘व्रजजनार्तिहन्’ उक्ति का विपरीतार्थ करती हैं। ‘व्रजजनानां निजजनानां आर्तीर्हन्सि नः अस्माकं आर्तीः कथं न हरसि’ हे श्यामसुन्दर! आप तो अपने स्वजन व्रजजनों की आर्ति का ही हनन करते हैं, हम व्रजांगनाओं की आर्ति का हरण नहीं करते। अथवा ‘व्रजांगनाजनान् स्वविप्रयोगजन्यतीव्रतापेन, तीव्रार्त्या हंति इति व्रजजनातिहन्’ इस उक्ति में ‘व्रजजनाः’ पद व्रजांगनाजनपरक है। व्रजांगनाएँ कह रही हैं, हे सखे! अपने विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से, तीव्र आर्ति से हमारा हनन ही आपके इस अवतार-विशेष का प्रयोजन है। यही कारण है कि आप अन्तर्धान होकर वन-वन में भटक रहे हैं। अथवा ‘व्रजजनानामार्ति-हन्ति गमयति इति ‘व्रजजनार्तिहन्’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्यक 1। 5। 3