गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6जनोन्मादकारिणी माया प्रहास के संकुचित हो जाने पर स्वभावतः ही मायाजनित गर्व का उपशमन हो जाता है। ‘निजजनस्मयध्वंसनस्मित’ का एक अर्थ यह भी है कि गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे सखे! आपके मंगलमय मुखचन्द्र की मधुर मनोहर मुस्कान को देखकर मानिनी भी मुग्ध हो जाती है अर्थात् उसका मान भंग हो जाता है। ‘निस्सन्देहं साधनम्’ हे सखे! हमारे स्मय-ध्वंस-हेतु आपका स्मित निस्सन्देह साधन है। ‘लखी जिन लाल की मुसकान। जिन्होंने एक बार भी लाल की मधुर मनोहर मुस्कान को देख लिया उनको इतर सम्पूर्ण विस्मृत हो जाता है। एतावता स्मय-ध्वंस में आपका स्मित ही अद्वितीय एवं निस्सन्देह साधन है। आपके मुखचन्द्र कमल से अमृतमय मकरन्द का वर्षण होता है; इस अमुतमय मकरन्द के पान से इतर सम्पूर्ण राग विस्मृत हो जाते हैं फलतः स्मय का भी प्रमशन हो जाता है। ‘नहि अमृते पीते दोषस्तिष्ठति।’ अमृत-पानान्तर कोई दोष स्थिर नहीं रह पाता। योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलात्मा परमहंसगण भी भगवन्मुखारविन्द के दिव्य स्मितस्वरूप माधुर्यामृत का रसास्वादन कर सम्पूर्ण दोषों का परिहार कर लेते हैं। ‘शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम्।’[1] भगवान् का प्रहास शोकाश्रुसागर का विशोषक है। ‘अनुग्रहाख्यहृत्स्थेन्दुसूचकस्मितचन्द्रिकाः’[2] भगवत्-स्मित ही हृदय-स्थित भगवदनुग्रहाख्य, चन्द्रमा की सर्वपापतापापनोदक परम शीतल दिव्य रश्मि हैं। गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे सखे! आपके ‘जलरुहाननं’ मुख-कमल के अदर्शन से निश्चय ही हम लोग मृत्यु को प्राप्त हो जायँगी। क्या आपको हमारा मरण ही अभीष्ट है? सखा तो अपने सखा के मनस्ताप को मिटाना चाहता है अतः आप भी निश्चय ही हमारी मृत्यु की कामना नहीं करते होंगे। अतः हे सखे! ‘जलरुहाननं चारु दर्शय’ अपने मनोहर मुख-कमल का दर्शन दें। मन को हर लेने वाला ही मनोहर है। |