गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6अर्थात, हे श्यामसुन्दर! जिस समय आप द्वारा किए गए विभिन्न बाल-सुलभ-चापल्ययुक्त उपद्रवों से घबराकर नन्दरानी ने आपको उलूखल में बाँध दिया उस समय आप प्राकृत शिशुवत् भय-प्रदर्शन करते हुए सिसक-सिसककर रोने लगे। उस समय आपके दिव्य कपोलों पर से ढुलकते हुए अंजन-मिश्रित अश्रु-बिन्दु ऐसे लग रहे थे मानो नील-कमल-कोष में ओस-कण-झूल रहे हों। हे भगवान्! आपकी यह दशा मुझे मोह में डाल देती है। जिसके भय से काल भी काँपता है, जिससे भय की अधिष्ठात्री देवता स्वयं भी भयभीत रहती है, जो काल का भी काल, ईश्वर का भी ईश, ब्रह्मा का भी ब्रह्मा है वही परात्पर, परब्रह्म, परमेश्वर ही अम्बा की छड़ी से भयभीत होकर सिसक रहा है, यह कैसी अद्भुत आश्चर्यमयी लीला है? सामान्यतः योग्य अधिकारी को ही तत्-तत् वस्तु प्रदान की जाती है परन्तु दानोत्साह में दानवीर के द्वारा योग्यायोग्य एवं देयादेय का विवेचन नहीं होता। गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे दानवीर! यद्यपि हमारी आकांक्षा अत्यन्त दुर्लभ-वस्तु-विषयिणी है तथापि दानवीर का दानोत्साह योग्यायोग्य एवं देयादेय का विवेचन नहीं करता। अतः आप हमारी अभिलाषा पूर्ण करें। अमलात्मा, परमंहस, योगीन्द्र, मुनीन्द्र भी गोविन्द-भजन में तत्पर रहते हैं; ‘गोविन्दं भज, गोविन्दं भज, गोविन्दं भज मूढमते’ परन्तु अनुरागमयी ये गोपालियाँ गोविन्द से ही कह रही हैं, ‘सखे! नः अस्मान् भज’ हे सखे! आप हमें भजें। अभिलषित का दान ही भजन है। आपके मुखचन्द्र के अदर्शन से, आपके सुमधुर अधर-सुधारस की अप्राप्ति से हम संतप्त हैं। हे सखे! हमारा अभीष्टदान कर आप हमारा भजन, हमारा अनुसरण करें। ‘नत्वेतत् अनुचितं’ सख्यभाववती हम गोपांगनाओं के एतादृक् भजन में अनौचित्य भी नहीं है; आप हमारे सखा हैं, हम आपकी सखी हैं; सख्य-भाव में परस्पर भजन ही उचित है। एतावता हमें अचिन्त्य, अनिन्द्य, अद्वितीय परमानन्द सुधा-सिन्धु भगवत्-स्वरूप के श्रीअंग का संस्पर्श प्राप्त होना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तैत्तिरीय उप. 2। 8। 1