गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6तात्पर्य कि भक्त एवं उसके परम-प्रेमास्पद भगवान् में परस्पर अन्योन्य भोक्ता एवं भोग्य का संबंध है, एतावता जीव अपने अन्नत्व एवं अन्नादत्व दोनों की ही भावना करता है। अस्तु, गोपांगनाएँ कहती हैं, ‘सखे! नः अस्मान् भज’ हे सखे! आप हमें भजें। गोपांगनाएँ श्रीकृष्ण के प्रति ‘सखे’ एवं ‘वीर’ जैसे संबोधन का प्रयोग करती हैं। अदेय का दाता ही ‘दानवीर’ है। भजन करने वाले को भगवान् मुक्ति तो दे देते हैं परन्तु भक्ति नहीं देते। ‘मुकुं ददाति इति मुकुन्दः’ मुक्ति देने वाला ही मुकुन्द है जैसे उपाधि का अपनयन होने पर उपहित एवं अनुपहित का अभेद स्थापित हो जाता है। घटोपाधि भंग होने पर घटाकाश, महाकाश, हो जाता है। अचिन्त्य अग्राह्य, अदृश्य, अव्यपदेश्य, अनन्त, अखण्ड, निर्विकार, निराकार, परात्पर, परब्रह्म-स्वरूप हो जाना ही मुक्ति किंवा मोक्ष है। मुक्ति देने में अग्रसर प्रभु भी कदाचित् ही भक्ति योग देते हैं। ‘अस्त्वेवमंग भगवान् भजतां मुकुन्दो। भक्ति योग प्रदान करेन पर भक्तवश्य होना पड़ता है। अपनी भृकुटी-विलास पर माया-नटी को नचाने वाले, अखिल ब्रह्माण्ड नायक, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्रभु स्वयं ही इस विलक्षण भक्ति के कारण भक्त-विवश हो कभी माता की छड़ी से भयभीत होकर रोने लगते हैं तो कभी गोपालियों का क्रीड़ामृग बनकर सूत्रधार संचालित दारु-यन्त्रवत् उनका अनुसरणा करने लगते हैं। गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद् |