गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6श्रृतिवचन है, ‘अहमन्नं, अहमन्नं, अहमन्नं, अहमन्नादः’ अर्थात् मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ। ‘अन्न’ अर्थात् भोग्य। तात्पर्य कि जीव ही भगवद्-भोग्य है एतावता भोक्ता का भगवान् द्वारा स्वीकृत हो जाना ही जीव का परम-पुरुषार्थ है। यही शेषावतार का रहस्य है। शेष-भगवान् कहीं भगवान् की शय्या हैं तो अन्यत्र कहीं सिंहासन ही बन जाते हैं; कभी अपनी फणाओं को भगवान् का छत्र बना देते हैं तो कभी स्वयं ही धनुष-बाण हाथ में लिये सजग प्रहरी बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि अपने-आपको सर्वतोभावेन भगवद्-शेष, भगवद्-भोग्य बना लिया। अपने परम-प्रेमास्पद सर्वशेषी प्रभु को आनन्द पहुँचाने के हेतु जीव अपने-आपको सर्वतः उनका शेष, भोग्य बना लें, अपने सुख की कल्पना भी न करें, यही तत्सुख-सुखित्वभाव है। आदरातिशयात्, औत्सुक्यातिशयात्, आदर एवं औत्सुक्य की अतिशयता में जीव अपने परम-प्रेमास्पद प्रभु का सर्वतोभावेन भोग्य बन जाने की ही बारम्बार कामना करने लगता है। अद्वैतमतानुसार ‘अहमन्नं’ का अन्य अर्थ भी है जो प्रसंग से भिन्न है, अतः उसका वर्णन अवांछित है। ‘अहमन्नं अहमन्नं अहमन्नं अहमन्नावः’ का तात्पर्य यह भी है कि भगवान् ही हमारे अन्नादः भी हों, भगवान् ही हमारे भोग्य हों। भगवान् के मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन पाकर, उनके पदारविन्द की नखमणि चन्द्रिका, दामिनी द्युति विनिन्दक पीतांबर, दिव्य भूषण वसनादि को निहारकर सुखी हो जायँ, उनके अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौरस्यसुधा-जलनिधि का रसास्वादन कर आनन्दित हो जायँ, यही ‘अन्नादः’ का तात्पर्य है। सांसारिक जन क्षुद्र लौकिक षट्रसों के आस्वादन में ही सुखी-दुःखी होते रहते हैं परन्तु भक्त एवं ज्ञानी सदा, सर्वदा, सर्वत्र ही अद्वितीय ब्रह्मानन्द-रस का आस्वादन करता रहता है। ‘रसो वै सः, रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।’[1] भक्त ही सकल-सच्छास्त्र-वेद्य, उपनिषदों के महातात्पर्य, परात्पर, परब्रह्म, रस-स्वरूप, महदानन्द, महत् रस के संभोक्ता हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तैत्तिरीय उप. 2। 7