गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5गोपांगनाएँ कह रही हैं, ‘विरचिताभयं’ यह आग्रह जनन-मरण-अविच्छेद लक्षणा संसृति से अभय प्रदान करने वाला है। साथ ही ‘कामदं-अस्मत्प्रतिपाद्यान् कामान् द्यति व्याल इव खण्डयति’ वेदों के द्वारा ‘स्वर्गकामः, पशुकामः, वृष्टिकामः, यागेनेष्टं भावयेत्’ भिन्न-भिन्न दृष्टि से विभिन्न कामों के लिए आग्रह प्रतिपादित हैं। ग्रह का अर्थ ज्ञान भी है; ‘विषयान् गृह्लाति इति ग्रहः’ विषयों को ग्रहण करने वाला ही ग्रह है, ब्रह्मविषयक ज्ञान ही ब्रह्म-ग्रह है। जो ज्ञान मोक्ष-संपादक है वह ग्रह, आग्रहरूप ज्ञान सम्पूर्ण कामनाओं का समूल उन्मूलन करने वाला है। तात्पर्य कि श्रुतियों के महातात्पर्य-ज्ञान द्वारा ही श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित विभिन्न काम-कर्मरूप अवान्तर तात्पर्य का खण्डन भी हो जाता है। कर्मकाण्ड एवं उपासना-काण्डपरक सम्पूर्ण वेद का अवान्तर तात्पर्य तत् तत् देवता एवं कर्म फल में होते हुए भी महातात्पर्य परात्पर, परब्रह्म प्रभु में ही हैं। ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’[1] सब वेदों का एकमात्र वेद्य परात्पर परब्रह्म है। ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’[2] सब वेद एक अनन्त, अखण्ड, परात्पर, परब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं। ‘नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः अर्थात्, अजितेन्द्रिय, अज्ञ प्राणी वेदोक्त कर्माचरण को त्यागकर विकर्म, अधर्म से परिगृहीत हो बारम्बार जन्म-मरण-परम्परा को प्राप्त होता है। सामान्यतः प्राणी को निस्संग बुद्धि से श्रौत-स्मार्त्त-कर्तव्य करते रहना चाहिये। ‘रोचनार्था फलश्रु तिः’ फलश्रुति रोचनार्थं है। |