गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5ऐसे जो मुमुक्षु शरणागत प्राणी हैं उनके सिर पर आप अपना श्रीकर-विन्यास कर उनको अभय प्रदान करें। उपर्युक्त मंत्र में यह भी स्पष्टतः ही कहा गया है कि ईश्वर ने ब्रह्मा को बनाकर वेदराशि को उनमें प्रेरित किया; तात्पर्य कि वेदराशि नित्य है, ईश्वर भी उसके निर्माता नहीं अपितु प्रेषणकर्ता ही हैं। ‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा जो भगवान् में ही अपने संकल्प-विकल्पात्मक चित्त को लगाए हुए भगवान् में ही अपने श्रोत्र-चक्षुरादि प्राणों को सन्निविष्ट किए हुए निरन्तर भगवत्-चिन्तन एवं अन्योन्य प्रबोधन में रत हैं ‘सततं कीर्तयन्तो मां’[2] ‘कृतसंशब्दने कीर्तयन्तः’ सदा-सर्वदा वेदान्त महावाक्यों द्वारा संशब्दन करते निदिध्यासनादि योग-मार्ग से यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि करते हुए ‘संसृतेर्भयात् चरणमुपेयुषां शरणं’ संसृति के भय से, ‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ जनन-मरण परम्परा से भयभीत हो आपकी शरण में आए हैं ऐसे मुमुक्षुजनों के ‘श्रीकरग्रहम् शिरसि धेहि’ सिर पर आप अपना श्रोकर विन्यस्त कर उनको अभय प्रदान करें। ‘श्रीकरग्रहम् श्रियं मोक्षरूपां श्रियं करोति इति श्रीकरः श्रीकरस्य ग्रहः आग्रहस्तम्’ जो मोक्ष रूपी श्री को उद्भूत करने वाला है; अनेक प्रकार की श्री होती है; अनन्त ब्रह्माण्ड की ऐश्वर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मी, साम्राज्यलक्ष्मी, स्वराज्यलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी अनेकानेक प्रकार के धन-धान्यमयी लक्ष्मी आदि विभिन्न श्री हैं। मोक्षरूपा श्री को सम्पादन करने वाला जो आग्रह ‘श्रीकरग्रहम्’ है, उसे उद्बुद्ध करें। ‘श्रीकरश्चासौ ग्रहश्च’ मोक्ष प्राप्त कराने वाला जो आग्रह; सत्-वस्तु, सत्-सिद्धान्त, सत्-नियम मे अभिनिवेश, आग्रह सदभिनिवेश, सदाग्रह ही कल्याणप्रद, मोक्षप्रद है। ‘संसृतेर्भयात्’ जो जनन-मरण-लक्षणा संसृति के भय से आपके चरणारविन्दों की शरण आए हैं ऐसे लोगों के लिए मोक्ष-लक्ष्मी सम्पादन कराने वाले अपने श्रीकरग्रह को उपनिषद्-भाग में धारण करें। तात्पर्य कि शरणागत मुमुक्षु जनों की दृढ़ निष्ठा उपनिषद्-भाग में सम्पादित करें। उपनिषद्-भाग में परब्रह्म का ही प्रतिपादन है। ‘गीता’ भी उपनिषद् है। ‘गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां श्रीकृष्णार्जुनसंवादे।’ |