गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5मानिनी पक्ष का व्याख्यान है। मानिनी कह रही हैं- हे श्यामसुन्दर! आपके संसरण, आप के पलायन से ही हम भयभीत हैं। आप तो तिरोधान हो जायेंगे और आपके विप्रयोगजन्य तीव्रताप से ये मुग्धाएँ दग्ध हो जायँगी। ये गोपांगनाएँ कान्तभाववती हैं, आप इनके कान्त हैं अतः आप अपने हस्तारविन्द को इनके सिर पर विन्यस्त कर इनको अभय प्रदान करें! आपके हस्तारविन्द ‘कामदं’ हैं ‘काम ददाति इति कामंद, कामं द्यति खण्डयति इति कामदं।’ हे श्यामसुन्दर! आप तो वृष्णिवंशावतंस, गोपवंशावतंस हैं। फिर भी कालिय-दमन, पूतना-विमर्दन, तृणावर्त-संहार, शकटासुर-भन्जन आदि कृत्यों से आपका क्षत्रियत्व ही सिद्ध होता है अतः प्रतीत होता है कि आप किसी जन्मान्तर में क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए होंगे; क्षत्रियत्वेन भी और नन्दनन्दन, गोपेश कुमार होने के कारण भी आपके लिए इन मुग्धाओं की रक्षा करना अनिवार्य है अतः आप इनके सिर पर अपने मधुर कोमल कान्तिमान् कर-सरोरुह का विन्यास कर इनकी रक्षा करें। क्षत्रिय जाति की यही विशेषता है कि वह स्व-सर्वस्व का बलिदान करके भी अन्य की रक्षा में सदा तत्पर रहती है। इस त्याग के कारण ही क्षत्रिय विशेषतः आदर-सत्कार के पात्र होते हैं। हे श्यामसुन्दर! आपको तो केवल अपने मधुर, कोमल कांतिमान् करपंकज को ही इन अबलाजनों के सिर पर विन्यस्त करना है; तदर्थ आपको कोई बलिदान भी नहीं करना पड़ रहा है। कान्तभाववती गोपांगनाओं के सिर पर आपके श्रीकरविन्यास से ही उनके सत्त्व की भी रक्षा की जायगी। अस्तु, आप संचरण, पलायन न कर इनके सिर पर अपना श्रीकर विन्यस्त करें। कान्त-भाववती गोपांगनाओं के रक्षा-हेतु पधारकर भगवान् श्रीकृष्ण स्वभावतः ही हमारा भी मान मना लेंगे फलतः हमारे मान की भी रक्षा हो जायगी इस अभिलाषा से मानवती गोपांगनाएँ श्रीकृष्ण को क्षत्रिय-कर्म के लिए प्रेरित करती हैं। गोपांगनाओं का यह मान अतिशय गौरव-मंडित है। इस मान का विशद विश्लेषण पूर्व प्रसंगों में किया जा चुका है। निवृत्ति-पक्षीय व्याख्यान है-श्री नीलकण्ठकृत ‘मंत्र-भागवत’ एवं ‘मंत्र-रामायण’ नामक दो ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में नन्दनन्दन, श्रीकृष्ण एवं राघवेन्द्र रामचन्द्र के परम-पावन चरित्रों का वर्णन ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा किया गया है। वे मंत्र ‘हरिवंश पुराण’ की नीलकंठी टीका में भी उद्धृत हैं। मंत्र-भाग व ब्राह्मण-भाग दोनों ही वेद हैं। ब्राह्मण-भाग के छान्दोग्योपनिषद् में ‘कृष्ण देवकीपुत्र’ शब्द आता है। |