गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5नीलिमा तमोगुण की द्योतक है। तमोगुण अवष्टम्भ है। अवष्टम्भ व्यसन है; व्यसन तमोगुण का कार्य है। प्रेमास्पद-स्वरूप में मन का स्थिर हो जाना ही अवष्टम्भ है। कार्य-सम्पत्ति हेतु सत्त्व, रज और तम अर्थात् बोध, गति एवं अवष्टम्भ तीनों ही क्रमशः अनिवार्य हैं। बोध होने पर ही कार्य में प्रवृत्ति होगी; यही कार्य का सत्त्व है। कार्य में प्रवृत्ति होने पर भी कार्य-सम्पादन हेतु क्रियाशीलता अपेक्षित है; यह क्रियाशीलता, गति ही कार्य का रजांश है। क्रियाशीलतान्तर अवष्टम्भ, स्थैर्य अनिवार्य है। उदाहरणतः कोई बढ़ई एक मेज बनाना चाहता है। उसके लिये सर्वप्रथम मेज का बोध आवश्यक है। मेज-बोध के अनन्तर तदनुसार लकड़ी काटना, छीलना आदि क्रियाशीलता, गति अनिवार्य है। लकड़ी काटने-छीलने की गति में समयोचित्त स्थैर्य नहीं किया गया तो लकड़ी निरन्तर कटती-छँटती चूर-चूर हो जायगी परन्तु मेज न बन पायेगी अतः अवष्टम्भ भी अनिवार्य है। इसी तरह कार्यमात्र के सफल सम्पादन हेतु सत्त्व, रज, तम, किंवा, बोध, गति एवं स्थैर्य तीनों अनिवार्य हैं। प्रेम-निरोध अनुराग का प्रारम्भिक स्वरूप है। प्रेम-निरोध में ध्येय-स्वरूप का परिपूर्णतः स्फुरण होता है; उनके अनन्त ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्यादिक दिव्य गुणगणों का आनुकूल्येन स्मरण होता है। आसक्ति-निरोध में ज्ञान-विज्ञान धूमिल पड़ने लगता है; प्रेमास्पद के प्रति प्रेम की अधिकाधिक दृढ़ता का विस्तार ही आसक्ति निरोध है। आसक्ति में स्थैर्य का प्रादुर्भाव ही अवष्टम्भ है। प्रेमास्पद में चित्त का स्वाभाविक अवरोध ही व्यसन-निरोध है। पूर्णतम पुरुषोत्तम परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र, रासेश्वरी नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी एवं गोपांगनाओं में प्रकृति एवं प्राकृत विकारों का सन्निवेश नहीं है। आत्मार्थ सृष्टि में भगवान् श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाएँ भी प्राकृत-प्रपन्च-रहित हैं तथापि इन विभिन्न लीलाओं के सम्पादन हेतु भी सत्त्व, रज, तम-बोध, गति एवं स्थैर्य अनिवार्य हैं। इस दृष्टि से भी भगवत्-स्वरूप में शुभ्र उत्पलाब्ज माला से सत्तव, अरुण आम्रपल्लव से रज एवं नील मयूर-पिच्छ-मुकुट से तम की अभिव्यन्जना मान्य है। |