गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5‘संसृतेर्भयात् चरणमीयुषां’ उक्ति का एक अर्थ यह भी है कि भगवान् श्रीकृष्ण कमल से कोटि-गुणाधिक कोमल निरावरण चरणारविन्दों से श्रीमद् वृन्दावनधाम में संचरण, सम्यक् परिभ्रमण कर रहे हैं। हे नाथ! आपके ये चरणारविन्द नलिन से भी कोटि-गुणाधिक सुन्दर हैं। भ्रदिमा, कोमलता की अधिष्ठात्री देवी भगवती लक्ष्मी भी अपने हस्तारविन्दों से आपके चरणारविन्द-संस्पर्श में सँकुचाती हैं कि कहीं मेरे कर्कश हस्तारविन्दों से प्रभु के निरतिशय कोमल चरणारविन्दों में आघात न लग जाय। भगवती लक्ष्मी के हस्तारविन्द स्वयं ही इतने कोमल हैं कि उनमें कमल की पँखुड़ी से भी आघात पहुँच जाने का भय बना रहता है। हे कान्त! जब आप गोचारण करते हुए वृन्दावन में निरावरण चरणों से परिभ्रमण करते रहते हैं तब हमारे मन में इस आशंका से कि आपके चरणारविन्दों में वृन्दावन के कुश, काश, कण्टकादि गड़ते होंगे, बड़ा संताप होता है। यह आशंकाजन्य सन्ताप आपके विरहजन्य ताप से भी अत्यधिक तीव्र है। यत्ते सुजात चरणाम्बुरुहं स्तनेषु अर्थात, हे नाथ! आपके विरहजन्य तीव्र ताप के उपशमन हेतु आपके चरणारविन्दों को अपने उरःस्थल से लगा लेने की हम लोगों को तीव्र उत्कण्ठा होती है तथापि अपने उरोजों की कर्कशता के कारण ऐसा नहीं कर पातीं। हमारे उरोज अत्यन्त कर्कश हैं और आपके चरणारविन्द अत्यन्त कोमल हैं, अतः आपके कोमलातिकोमल चरणारविन्दों में हमारे कठोर उरोजों के कारण आघात लग जाने की आशंका से हम भय खाती हैं। एतावता आपके विरहजन्य दुस्सह वेदना को भी हम सह लेती हैं परन्तु आपके चरणारविन्दों को अपने उरःस्थल में धारण नहीं करतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10। 31। 19