गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5असामान्य धर्म, सामान्य धर्म से विशिष्ट होता है; अतः हे कान्त! हम अनुरागिणी, शरणागत सीमन्तिनी, गोपांगनाजनों के सिर पर अपने हस्तारविन्द-विन्यास द्वारा विरहार्तिजन्य हमारे सम्पूर्ण हृत्ताप एवं व्यथा का अपनयन करें। जो भक्तजन संसार के भय से आपके मंगलमय चरणारविन्दों की शरज आये हैं उनके मस्तक पर अपने हस्तारविन्द विराजमान करें। ‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणम्। विविध प्रकार के कर्मों से विविध प्रकार की भावनाएँ उद्भूत होती हैं; इन विविध भावनाओं एवं संकल्पों के आधार पर ही पुनर्जन्म होता है; यह जनन-मरण की अविच्छेद परम्परा ही संसृति संसार है। इस जनन-मरण अविच्छेद लक्षणा संसृति से परिश्रान्तजनों के लिये भगवत् पदारविन्द ही एकमात्र आश्रय हैं। शरण्य की शरणागति ही फलपर्यवसायी होती है, अशरण्य की शरणागति निरर्थक हो जाती है। स्वयं सर्वशरण्य भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र ‘समुद्रं शरणं गतः’ समुद्र की शरण गये, अशरण्य की शरण गये, अतः उनकी वह शरणागति विफल हुई। विभीषण सर्वशरण्य राघवेन्द्र रामचन्द्र की शरण गये-‘राघवं शरणं गतः ‘शरण्यं शरणं गतः’ अतः वे कृतार्थ हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शंकराचार्य