गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 194

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 5

असामान्य धर्म, सामान्य धर्म से विशिष्ट होता है; अतः हे कान्त! हम अनुरागिणी, शरणागत सीमन्तिनी, गोपांगनाजनों के सिर पर अपने हस्तारविन्द-विन्यास द्वारा विरहार्तिजन्य हमारे सम्पूर्ण हृत्ताप एवं व्यथा का अपनयन करें।

‘संसृतेर्भयात् चरणमीयुषां विरचिताभयं’

जो भक्तजन संसार के भय से आपके मंगलमय चरणारविन्दों की शरज आये हैं उनके मस्तक पर अपने हस्तारविन्द विराजमान करें।

‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणम्।
पुनरपि जननीजठरे शयनम्।।’[1]

विविध प्रकार के कर्मों से विविध प्रकार की भावनाएँ उद्भूत होती हैं; इन विविध भावनाओं एवं संकल्पों के आधार पर ही पुनर्जन्म होता है; यह जनन-मरण की अविच्छेद परम्परा ही संसृति संसार है। इस जनन-मरण अविच्छेद लक्षणा संसृति से परिश्रान्तजनों के लिये भगवत् पदारविन्द ही एकमात्र आश्रय हैं। शरण्य की शरणागति ही फलपर्यवसायी होती है, अशरण्य की शरणागति निरर्थक हो जाती है। स्वयं सर्वशरण्य भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र ‘समुद्रं शरणं गतः’ समुद्र की शरण गये, अशरण्य की शरण गये, अतः उनकी वह शरणागति विफल हुई। विभीषण सर्वशरण्य राघवेन्द्र रामचन्द्र की शरण गये-‘राघवं शरणं गतः ‘शरण्यं शरणं गतः’ अतः वे कृतार्थ हुए।
भगवत् हस्तारविन्द ‘विरचितः अभयो भयाभावो येन’ द्वारा सम्पूर्ण भयाभाव का सम्पादन होता है। भगवत् हस्तारविन्द ‘सत्’ हैं, संसृति का अपनोदन करने वाले हैं; भगवत्-संस्पर्श से अज्ञान समूल नष्ट हो जाता है, वासनाओं का बाध होता है अतः पुनर्जन्म के हेतु का ही छेदन हो जाता है। अस्तु, श्रीकरसंस्पर्श से जन्म-मरण की परम्परा का ही समूल उन्मूलन हो जाता है तथा संपूर्ण भय-त्रास से तात्कालिक एवं विरहजन्य आत्यन्तिक निवृत्ति ही जाती है। गोपांगनाएँ कहती हैं, हे कान्त! आपका विरहजन्य तीव्रताप ही हम लोगों के लिए विशेषतः भयावह है; आपके श्रीकर-विन्यास द्वारा इस सर्वाधिक भय का ही उच्छेदन हो जायगा। साथ ही, आपके मंगलमय अंग-संग की भी प्राप्ति हो जायगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शंकराचार्य

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2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
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