गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5भगवान् श्रीकृष्ण ‘कामं ददाति इति कामदः’; अर्थात् सम्पूर्ण कामनाओं के दाता भी हैं। पदार्थ के प्रति उत्कट कामना जाग्रत् होने पर उसकी पूर्ति से ही कामना का बाध सम्भव है। केवल ज्ञान-विज्ञान के आधार पर कामनाओं का समूल उन्मूलन नहीं होता परन्तु भगवत्-साक्षात्कार द्वारा कामनाओं की पूर्ति के साथ ही साथ उनके हेतुओं का भी उन्मूलन हो जाता है। विभीषण राघवेन्द्र रामचन्द्र की शरण आये परन्तु उनके मन में लंकापति बनने की उत्कट अभिलाषा (कामना) थी; अतः भगवान् श्री रामचन्द्र ने विभीषण के आते ही उन्हें ‘लंकेश’ कहकर सम्बोधन किया - या ‘जो संपति सिव रावनहिं, दीन्हि दिएं दस माथ। ‘महावीरचरित’ नाटक में भवभूति ने तो यहाँ तक लिखा है कि पहले विभीषण ने भगवान् के पास एक शरणागति-पत्र भेजा था। उस पत्र को देखते ही भगवान् लक्ष्मण से बोल उठे - भक्त-हृदय की कामना को जानकर ही भगवान् रामचन्द्र राघवेन्द्र ने अत्यन्त संकोच के साथ विभीषण को वह अतुल सम्पदा दे दी जो भगवान् शिव ने रावण को अपने दसों शीश अर्पण करने पर दी थी। स्वयं विभीषण ही कहते हैं ‘उर कछु प्रथम वासना रही। प्रभु-पद-प्रीति सरित सो बही।।’[5] हे नाथ! पहले मेरे मन में एक अभिलाषा अवश्य थी परन्तु प्रभु-पद-प्रीति-सरिता में वह दोष भी बह गया; अर्थात् मेरी कामना का ही समूल उन्मूलन हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, सुन्दर कां. 45। 4
- ↑ गीतावली 4। 43। 4
- ↑ मानस, सुन्दर कां. 49 ख
- ↑ 2। 94
- ↑ मानस, सुन्दर कां. 48। 6