गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5‘बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं। राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा।।’[1] बिना संतोष के काम-वासना नष्ट नहीं होती, विभिन्न वासनाओं के रहते सुख कदापि प्राप्त नहीं हो सकता; बिना राम-भजन के काम का नाश सम्भव नहीं होता; जैसे बिना भूमि के बीज कदापि नहीं जमता वैसे ही बिना रामभजन के वासना का उन्मूलन भी कदापि सम्भव नहीं। सम्पूर्ण प्रपन्च का मूल ही काम है और काम का मूल है संकल्प। ‘काम जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे।’[2] विभिन्न वस्तुओं के ऊहापोह से उनमें सम्बन्ध बना एवं तत्-तत् सम्बन्ध से तत्-तत् कामना बनी। ‘अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्। प्राणिमात्र का यावत् कर्म काम का ही विलास है; काम से रहित कोई क्रिया ही सम्भव नहीं। भगवत्-तत्त्व-वेदन से ही काम-क्रिया-जाल का समुच्छेद सम्भव है। ‘एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। |