गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4नियम है कि यदि दो उपाधि एक हो जाय तो उपहित भी एक ही हो जाता है। जैसे घटापाधि एवं मठोपाधि के एक हो जाने पर घटाकाश एवं मठाकाश भी एक हो जाते हैं वैसे ही अन्तःकरण एवं विषय विशेष के एक हो जाने पर उभयावच्छिन्न चैतन्य भी एक हो जाता है। विषयावच्छिन्न चैतन्य में अध्यस्त घट, विषयावच्छिन्न चैतन्य-भिन्न, अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य में भी अध्यस्त मान्य है। अस्तु, अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य से घट का प्रकाश हो जाता है। वेदान्तानुसार अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य से ही अध्यस्त विषय का प्रकाशित होना मान्य है। अन्य विभिन्न प्रकार से भी विषय का प्रकाश मान्य है तथापि प्रत्येक दृष्टिकोण से प्रज्ञा के द्वारा ही विषय के साथ आत्मा का सम्बन्ध बनता है। प्रकाशरूपत्वात् प्रकाश-व्यवहार होता है जैसे ‘आदित्यः प्रकाशते’ सूर्य प्रकाशता है; स्वतः प्रकाशस्वरूप सूर्य प्रकाशक है परन्तु ‘घटः प्रकाशते’ घट प्रकाशित होता है। यहाँ घट स्वतः प्रकाश स्वरूप नहीं है परन्तु सम्बन्ध-विशेष से प्रकाशित हो जाता है। जैसे स्वच्छ स्फटिक अथवा दर्पण पर ही प्रतिबिम्ब सम्भव होता है पत्थर अथवा काष्ठ पर प्रतिबिम्ब कदापि सम्भव नहीं होता वैसे ही अन्तःकरण से सम्बन्ध विषय पर ही अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य प्रकाशित हो जाता है, विषयीरूप चैतन्य का प्राकट्य हो जाता है। अस्तु, ‘विश्वस्य गुप्तये विश्वस्य रक्षणाय, कार्य-कारणसंघातस्य रक्षणाय, सात्वतां कुले सात्वतां मनआदीनां कुले समुदाये भवान् उदेयिवान् आर्विर्भूतः।’ विश्वरक्षा-हेतु ही आपका सात्वतों के कुल में आविर्भाव हुआ है; अतः हे विभो! आप प्रत्यक्ष होकर हमारी रक्षा करें। |