गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4परब्रह्म के प्रतिबिम्बित होने से मन, बुद्धि एवं अहंकार चेतित हुए फलतः सम्पूर्ण विराट् चेतित हो उठा। जैसे अनेक छिद्रवाले घर में दीपक प्रज्वलित कर दिया जाय तो प्रकाश सभी छिद्रों से निःसृत होता है वैसे ही दशछिद्रयुक्त शरीर रूपी घर के सभी दशों छिद्रों से सच्चिदानन्द का प्रकाश ही निःसृत होता है। दशों इन्द्रियाँ ही दशछिद्र हैं। बुद्धि विशिष्ट चैतन्य तद्-तद् इन्द्रियों द्वारा तत्-तत् विषय को ग्रहण करता है। यही ‘सात्वतां कुले’ मन आदिकों के कुल में भगवान् का अभ्युदय है। श्रुति-कथन है ‘प्रज्ञया चक्षुः समारुह्य सर्वाणि रूपाणि आप्नोति।’[1] प्रज्ञा के द्वारा आत्मा चक्षु पर उपारूढ़ होकर सब रूपों को देखता है ‘प्रज्ञया वाचं समारुह्य वाचा सर्वाणि नामानि आप्नोति’[2] इसी तरह तत्-तत् इन्द्रिय पर उपारूढ़ होकर आत्मा की तत्-तत् विषयों का अभिवहन करता है। अस्तु, स्वप्रकाश आत्मा के प्रकाश से शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध पाँचों विषय प्रकाशवान् होते हैं। प्रकाश ही परब्रह्म है; परब्रह्म से भिन्न प्रकाश को सत्ता ही नहीं तथापि ब्रह्म असंग है। सिद्धान्ततः बोध के साथ विषय का समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं। वस्तुतः विषय का विषयी के साथ आध्यासिक सम्बन्ध ही होता है। विषयीस्वरूप आत्मा ही प्रकाश है, विषय ही प्रकाश्य है; बोध विषयबोध स्वरूप विषयी में अध्यस्त है यही उनका आध्यासिक सम्बन्ध है। एतावता, विषय में अध्यस्त चैतन्य से ही विषयविशेष का प्रकाश होता है। जैसे सरोवर का जल कुल्याओं द्वारा खेत में जाकर खेत जैसा चौकोर हो जाता है ऐसे ही अन्तःकरणगत सात्तिवक द्रव्य इन्द्रियरूप कुल्याओं द्वारा तमोगुण के प्रतिबन्ध दूर हो जाने से घटादि विषयों पर जाकर घटाकाराकारित बन जाता है। |