गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4उपक्रमोपसंहारादि षड्विध लिंग द्वार वेद-वेदान्तों के तात्पर्य का परब्रह्म में निर्धारण करने वाले विज्ञजन आपकी ही कामना करते हैं क्योंकि आप ही मोक्ष स्वरूप हैं। ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’[1] सब वेद जिसका व्याख्यान करते हैं। ‘वेदेश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’[2] सर्व वेदों मे जो वेद्य हैं, आदि वेद-वाक्यों पर गम्भीर विचार करने वाले विद्वद्वर ‘भवानेव अर्थितः’ आपको ही अभ्यर्थना, प्रार्थना करते हैं क्योंकि आप ही मोक्ष स्वरूप हैं। प्रमेय सदा ही अज्ञात रहता है, फल सदा ही ज्ञात होता है। निरावरण परब्रह्म ही मोक्ष है; सावरण ब्रह्म वेदान्त का विषय है; निरावरण परब्रह्म वेदान्त-विचार का फल है। अस्तु, ‘विखनसा, विदुषा, वेदार्थत्वेन भवानेव अर्थितः अभ्यर्थितः। विश्वस्य कार्य-कारण-संघातस्य गुप्तये रक्षणाय सात्वतां कुले मनआदि समुदाये उदेयिवान् अभिव्यक्तः।’ कार्य-कारण संघात-विश्व-रक्षण हेतु आप मन आदि सात्त्विक अन्तःकरण रूप कुल में आविर्भूत हुए। ‘अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि।’[3] इत्यादि श्रुतियों के अनुसार परब्रह्म परमेश्वर जीव स्वरूप से ‘हन्ताहमिमास्तिस्त्रो देवता।’[4] तेज, अप् एवं अन्नरूप तीन देवताओं में संप्रविष्ट होकर नामरूप का व्याकरण करता है। ऐतरेय उपनिषद् के अनुसार भी भगवान् के सन्निविष्ट होने पर हो महाविराट् उत्थित हुआ। महाविराट् वागादि इन्द्रियों से तथा मन, बुद्धि, अहंकाररूप से तत् तत् देवताओं के सन्निविष्ट होने पर भी उत्थित न हुआ ‘नोदतिष्ठत्तदा विराट्।’[5] तब उस महाविराट में भगवान् प्रविष्ट हुए ‘सलिलादुदतिष्ठत्’[6] तत्क्षण विराट् उत्थित हो गया। अस्तु, सम्पूर्ण कार्य-कारण-संघात-हेतु ही आपका आविर्भाव हुआ। जैसे सूर्य की किरणें अग्निरूप में सूर्यकान्तमणि पर ही प्रकट होती हैं वैसे ही मन आदि सात्त्विक पदार्थ में ही आपका स्वरूप प्रतिबिम्बित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठो. 1। 2। 15
- ↑ गीता 15। 15
- ↑ छा. उ. 6। 3। 2
- ↑ छा. उ. 6। 3। 2
- ↑ श्रीमद्भा. 3। 26। 63
- ↑ श्रीमद्भा. 3। 26। 70