गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 18

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

श्रीकृष्ण का एक-एक अंग, पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी कार्य हो सकते हैं। उनके कान देख सकते हैं, उनकी आँखें सुन सकती हैं, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है। उनकी त्वचा स्वाद ले सकती है। वे हाथों से देख सकते हैं, आँखों से चल सकते हैं। श्रीकृष्ण का सभी कुछ श्रीकृष्ण होने के कारण वह सर्वथा पूर्णतम है। इसी कारण उनकी रूपमाधुरी नित्यवर्धनशील, नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। अतः उनकी रासलीला को काम-क्रीड़ा कहना जघन्य पाप है। वह उनकी सांकल्पिक दिव्यलीला है। जैसे सृष्टि के आरंभ में ‘स ऐक्षत एकोऽहं बहुस्याम्’- भगवान के ईक्षणमात्र से जगत् की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रास के प्रारंभ में भगवान के प्रेममय वीक्षण से शरत्काल की दिव्य रात्रियों की सृष्टि होती है। चाँदनी, विविधपुष्पसमृद्धि, शीतल-मन्द-सुरभित पवन आदि समस्त उद्दीपन-सामग्री भगवान के द्वारा वीक्षित है, लौकिक नहीं। गोपियों ने अपने मन को भगवान श्रीकृष्ण के मन में मिला दिया था, उनके पास स्वयं मन न था। तब श्रीकृष्ण ने विहार के लिये नवीन दिव्य मन की सृष्टि की। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यही योगमाया है, जो रासलीला के लिये दिव्य स्थल, दिव्य सामग्री एवं दिव्य मन का निर्माण किया करती है। और उस पर भी श्रीकृष्ण की मोहक बाँसुरी बजती है।

भगवान कृष्ण की बाँसुरी जड़ को चतन और चेतन को जड़, चल को अचल और अचल को चल, विक्षिप्त को समाधिस्थ और समाधिस्थ को विक्षिप्त बनाती ही रहती है। गोपियाँ तो वैराग्य की प्रतिमूर्तियाँ थीं, उन्हें सांसारिक किसी पदार्थ की कामना नहीं थी। वे तो भगवान के चरणों पर सर्वथा समर्पित हो चुकी थीं। भगवान की बाँसुरी सुनकर वे ऐसी चल दीं, जैसे हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरनेवाली ब्रह्मपुत्र नदी की धारा चल देती है। उसे कोई रोक नहीं सकता। गोपियों के आने पर उनके हृदय को और अधिक निर्मल बनाने की दृष्टि से अथवा विप्रलम्ब के द्वारा उनके भाव को और अधिक पुष्ट करने के लिये, अथवा साधारण प्राकृत लोगों के उपदेशार्थ, अथवा गोपियों के अधिकार-प्रकाशनार्थ भगवान श्रीकृष्ण गोपियों से कुछ समय तक वार्तालाप करते रहे। गोपियाँ श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वर, परब्रह्म के रूप में जानती थीं। सच्चिदानन्दघन, सर्वान्तर्यामी, प्रेमरसस्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लाह्दिनीशक्तिरूपा आनन्द चिन्मय रस प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्बस्वरूपा गोपियों से जो आत्मक्रीड़ा की है, इस दिव्यक्रीड़ा का ही नाम ‘रास’ है। इसमें न कोई जड़ शरीर था और न प्राकृत अंग-संग था। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होता है।

वियोग ही संयोग का पोषक होता है। अभिमान और मद ही भगवान की लीला में बाधक बनता है। तथापि भगवान को दिव्य लीला में दिव्य मान और दिव्य मद भी इसलिये हुआ करते हैं कि उनसे लीला में रस की और अधिक पुष्टि हो। भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार होते ही भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए। हृदय में लेशमात्र भी मान और मद के रहते हुए वह व्यक्ति भगवान के सम्मुख रहने का अधिकारी नहीं है।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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