गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 170

Prev.png

गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

भाव-विभोर व्रजांगनाओं में पुनः श्रीकृष्णकृत प्रश्न का स्फुरण होता है; वे अनुभव करती हैं मानो श्रीकृष्ण उनसे कह रहे हैं कि ‘हे गोपालियो! मुझे मायातीत, कार्यकारणातीत जानते हुए भी मेरे प्रति स्त्री-घातकी, निष्करुण, निर्दयी आदि रुक्ष वचन क्यों कहती हो?’ वे उत्तर देती हैं, हे सखे! आपके हृदय में अपने प्रति करुणा उद्बुद्ध करने के लिए हम ऐसे कठोर वचन कह रही हैं। ‘हृदय प्रीति मुख वचन कठोरा’ आपसे विप्रयुक्ता, विरह-व्याकुला हम आपकी अनुरागिणी जनों की दर्पाभास-जनित कोपोक्तियों पर ध्यान न देकर आप हमारी अन्तर्वेदना को समझें। ईश्वर की विशेषता यही है कि वह बाह्य-व्यापार-निरपेक्ष-आत्मदृक् है।

‘रहती न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सत बार हिए की।’[1]

जिसने एक बार वस्तुतः भगवद्-चरणारविन्दों की शरणागति स्वीकार कर ली उसके अनेकानेक बहिरंग अपराधों को भी भगवान् सर्वथा भुला देते हैं।

‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’[2]

अर्थात, ईश्वर ही सर्वभूतों का एकमात्र स्वाभाविक सुहृद् है। संसार के सम्पूर्ण सौहार्द कृत्रिम हैं। अस्तु, गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे सखे! आप सर्वसुहृद् हैं, सर्वसाक्षी हैं, अतः हमारी विरहार्तिजन्य कोपोक्तियों पर ध्यान न दें वरन् हमारे प्रेमोद्रेक का अनुभव कर शीघ्र ही प्रत्यक्ष हो जायँ। हे सखे! आप आत्मदृक् हैं, साथ ही, गोपिका, यशोदारानी के भी सूनु हैं अतः हम गोपांगनाओं का आपसे विशेष सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के कारण भी आपको हमारे सहायतार्थ दौड़ पड़ना चाहिए। अपने लोगों की सुरक्षा स्वजनों पर ही आधारित होती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, बा. का. 28। 5
  2. गीता 5। 29

संबंधित लेख

गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः