गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 17

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

श्रीमद्भागवत के रहस्यवेत्ता श्रीधरस्वामी की अद्वैतमतपरक प्रामाणिक व्याख्या सर्वत्र प्रसिद्ध और आदरणीय है। कतिपय सम्प्रदायाचार्यों का अन्यान्य विषयों में उनसे मतैक्य न रहने पर भी ‘भक्ति’ के विषय में सभी आचार्यों का उनसे मतैक्य है, भक्तिरस के विषय में सभी आचार्य श्री श्रीधरस्वामी को उत्कृष्ण आदरदृष्टि से देखकर उनका सम्मान करते हैं।

भक्ति और ज्ञान दोनों ही अन्तरंग भाव हैं, अतएव वे अन्तरंग में रहनेवाले परमेश्वर का साक्षात् स्पर्श करते हैं। इन्द्रियों के द्वारा होने वाले कर्म ‘ज्ञान’ अथवा ‘भक्ति’ के सहायक होकर ही भगवत्प्राप्ति के साधन होते हैं। कर्म प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-निष्काम, सकाम और निरर्थक। निरर्थक कर्मों का उपयोग कहीं भी नहीं होता। सकाम कर्म दो प्रकार के होते हैं-शास्त्रानुकूल और शास्त्रप्रतिकूल। शास्त्रप्रतिकूल कर्म इस लोक में कुछ दिनों तक के लिये सफल हो सकते हैं, परन्तु भविष्य में परिणाम अच्छा नहीं है। शास्त्रानुकूल सकाम कर्मों से इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति तो होती है, किन्तु भगवत्प्राप्ति नहीं हो पाती। भगवत्प्राप्ति तो निष्कामकर्म से ही होती है, जो सर्वदा सात्त्विक और शास्त्रानुकूल ही होते हैं। श्रीमद्भागवत में भगवान के लिये किये जाने वाले कर्मों को ही निष्काम कर्म माना गया है। भगवदर्थ रहित कर्म किसी काम के नहीं। श्रीमद्भागवत में तो भगवदर्थ कर्मों को ‘कर्म’ ही नहीं माना है, उन्हें निर्गुण कहा है। वे तो ‘भक्ति’ के ही अन्तर्गत होने से स्वयं भक्तिस्वरूप ही हैं। भगवत्प्राप्ति के लिये अनेक साधन बताये हैं, उन सब साधनों में से सर्व-साधारण के लिये और अधिकारभेद से रहित तथा सर्वकालोपयोगी भगवन्नाम के जप (स्मरण) का आश्रय करना ही सुसाध्य है। इससे भी भगवत्प्रसाद, भगवत्प्रेम और साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है।

हम पहले कह चुके हैं कि कतिपय गीत भी भागवत में उपलब्ध होते हैं। जब मन अपनी व्यथा, अन्तर्वेदना और अनुभूति को अपने भीतर संवरण नहीं कर पाता, धैर्य का बाँध टूट जाता है, तब अपने-आप ही-किसी को सुनाने के लिये नहीं-जो उद्गार निकलते हैं, उन्हें ‘गीत’ नाम से कहा जाता है। वे गीत संसार की कटुता के अनुभव से, ज्ञान से, विरह से, प्रेम से, प्रेम करने की इच्छा से, विरह की संभावना से अथवा अन्य कारणों में भी हृदय के द्वारा उमड़ पड़ते हैं-एकान्त में भी, लोगों के सामने भी, किसी की अपेक्षा न करके भी और किसी को सम्बोधित करके भी, परन्तु ऐसे प्रसंग बहुत अल्प हैं और जितने है, उनमें अधिकांश गोपियों के ही हैं। गोपियाँ तो प्रेम, विरह की मूर्तिमान स्वरूप ही हैं। इन गोपियों के गीतों को पढ़कर एक बात पत्थर का हृदय भी पिघल सकता है। ये गोपियाँ जिसके विरह से व्याकुल होकर तड़प रही हैं, वह श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण है।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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