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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 4
शंकराचार्य के शिष्य, नृसिंह-भक्त, पद्मपादाचार्य की कथा ऐसे ही विरलभाव की द्योतक है। विकासवाद क्रमानुसार भगवान् मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि विभिन्न रूपों में आविर्भूत हुए। कथा है कि भगवान के नृसिंह-रूप में आविर्भूत होने पर भगवती लक्ष्मी भी भयभीत हो गई। अदृश्य, अचिन्त्य, अग्राह्य, अलक्षण, अव्यक्त, अगोचर, अव्यपदेश्य, निर्विकार, मन-वचनातीत में प्रेम सम्भव नहीं। ‘पररीत्यैव परो बोधनीयः’ अर्थात् जो प्रतीति से ही बोधगम्य है। साधक की बुद्धि में भगवान् का अभिव्यन्जन जिस रूप में होता है उसी रूप में आपका प्राकट्य होता है। सजातीय में ही पूर्ण प्रेमोद्रेक सम्भव है।
अस्तु, संकोच के सम्पूर्ण हेतुओं का अपनोदन करने के लिए अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड-नायक आप गोपकुल में हमारे सजातीय बनकर प्रकट हुए; सम्पूर्ण शास्त्रीय मर्यादाओं से विनिर्मुक्त हो गोपाली-प्रियरूप में ही आपका आविर्भाव हुआ। सख्य-भाव की अभिव्यन्जना में ही प्रेम-वैभव पूर्णतः प्रस्फुटित होता है। आपकी यह अन्तर्धान-लीला सम्पूर्ण रस का व्यापादन करने वाली है। अतः हे सखे! हे व्रजेन्द्रनन्दन! आप प्रकट हो जायँ।
‘न खलु गोपिकानन्दनो भवान्’ आप गोपिका-नन्दन नहीं हैं। ‘गोपायति परं ब्रह्मेति गोपिका, माया’ जो ब्रह्म को परावृत कर ले वह गोपिका ही माया है।
‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।’[1]
इत्यादि वचनानुसार परब्रह्म का आवरण माया द्वारा होता है।
‘तस्याः गोपिकायाः नन्दनो न कदाचित् भवति’ आप उस माया गोपिका के कार्य कदापि नहीं हैं। ‘कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः’ सम्पूर्ण जीवमात्र कार्योपाधिक हैं केवल ईश्वर ही कारणोपाधिक है। तात्पर्य कि चैतन्य ही माया के कार्य अन्तःकरणादि से उपहित होकर जीवपदवाच्य होता है। अस्तु, हे सखे! आप गोपिकानन्दन, माया के कार्य नहीं हैं किन्तु मायातीत, कार्यकारणातीत, सर्वद्रष्टा, सर्वसाक्षी अन्तरत्मदृक् हैं।
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