गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 168

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

प्रेमी भ्रमर भी उन कमल-दलों के साथ ही हाथी के पैरों के नीचे पिस गया। तात्पर्य कि प्रेम-रज्जु-कृत बन्धन ही सर्वातिशायी सशक्त-बन्ध होता है। इस प्रेम-बन्धन के कारण ही अपरिमेय भी परिमित हो जाता है, अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्डनायक, परात्पर, परब्रह्म भी प्राकृत-शिशुवत् यशोदा रानी के उलूखल से बँधे आँसू टपकाने लगते हैं।

अथाव ‘विश्वेषां गुप्तिः, विश्वस्य परमा गुप्तिः विलयः।’ ब्रह्मा द्वारा प्रार्थित होकर आप विश्व-संहार के लिए ही आविर्भूत हुए हैं। तात्पर्य कि जिसको विश्वशान्ति वांछित न हो ऐसे ही व्यक्ति ने श्रीकृष्ण-स्वरूप में विश्व-संहार-हेतु जन्म लिया है तथापि ईश्वर भी नियति का उल्लघन करने में समर्थ नहीं अतः संपूर्ण जीवों के फलोन्मुख-कर्मों के भोग-सम्पन्न होने पर ही प्रलय सम्भव है एतावता सम्पूर्ण विश्व-संहार में असफल होकर आप अन्तर्धान हो हम गोपांगनाओं के ही संहार में प्रस्तुत हो रहे हैं-

‘भ्रमति भवानबलाकवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम्।
प्रथयति पूतनिकैव वधूवधनिर्दयबालचरित्रम्।।’[1]

अबलाओं के भक्षण-हेतु ही तो आप वन में भटकते रहते हैं। पूतना-वध जैसा आपका निर्दय बाल-चरित्र ही इस बात को व्यक्त कर रहा है।
‘सात्वतां कुले-गोपानां कुले-भक्तानां कुलेऽभूत्, अतः न तेषामेवऽनुरूपो भवितव्यः! हे सखे! वेदानुसार भी आप सर्वसखा, सर्वहितकारी, सर्वसृहृद् एवं जीवमात्र के परम-अंतरंग हैं अतः आप द्वारा हमारा संरक्षण ही अभिप्रेत है। सगुण साकार सच्चिदानन्द ईश्वरस्वरूप से आह्लादक भाव ही विशेषतः अभिव्यीजत होता है क्योंकि समान में ही सख्य सम्भव है। यदा-कदा भगवान् के विचित्र रूपों में भी पूर्ण भावोद्रेक हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीतगोविन्द, 17। 7

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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