गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4प्रेमी भ्रमर भी उन कमल-दलों के साथ ही हाथी के पैरों के नीचे पिस गया। तात्पर्य कि प्रेम-रज्जु-कृत बन्धन ही सर्वातिशायी सशक्त-बन्ध होता है। इस प्रेम-बन्धन के कारण ही अपरिमेय भी परिमित हो जाता है, अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्डनायक, परात्पर, परब्रह्म भी प्राकृत-शिशुवत् यशोदा रानी के उलूखल से बँधे आँसू टपकाने लगते हैं। अथाव ‘विश्वेषां गुप्तिः, विश्वस्य परमा गुप्तिः विलयः।’ ब्रह्मा द्वारा प्रार्थित होकर आप विश्व-संहार के लिए ही आविर्भूत हुए हैं। तात्पर्य कि जिसको विश्वशान्ति वांछित न हो ऐसे ही व्यक्ति ने श्रीकृष्ण-स्वरूप में विश्व-संहार-हेतु जन्म लिया है तथापि ईश्वर भी नियति का उल्लघन करने में समर्थ नहीं अतः संपूर्ण जीवों के फलोन्मुख-कर्मों के भोग-सम्पन्न होने पर ही प्रलय सम्भव है एतावता सम्पूर्ण विश्व-संहार में असफल होकर आप अन्तर्धान हो हम गोपांगनाओं के ही संहार में प्रस्तुत हो रहे हैं- ‘भ्रमति भवानबलाकवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम्। अबलाओं के भक्षण-हेतु ही तो आप वन में भटकते रहते हैं। पूतना-वध जैसा आपका निर्दय बाल-चरित्र ही इस बात को व्यक्त कर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीतगोविन्द, 17। 7