गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 167

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

‘बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि;
प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।
दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रिः
निष्क्रियो भवति पंकज-कोशे।।’[1]

अर्थात, यद्यपि संसार में अनेक प्रकार के बंधन हैं परन्तु प्रेम-रज्जु-कृत बन्धन तो सर्वथा ही विलक्षण है। कठोरातिकठोर काष्ठ को भेद देने में निपुण षडंघ्रि (भ्रमर) भी कमल को कोमलातिकोमल पँखुड़ियों में विवश होकर रह जाता है और उसके साथ ही पिस भी जाता है।

‘रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः।
इत्यं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे,
हा मूलतः कमलिनीं गज उज्जहार।।’[2]

अर्थात, भ्रमर कमल-पुष्प-मकरन्द-पान में लीन था तभी सूर्य भगवान् अस्ताचलगामी हो गये; कमल मुकुलित हुआ; भ्रमर भी उस मुकुलित कमल में ही बँधा रह गया; नेह भरा भ्रमर अपने प्रेमास्पद कमल की पँखुड़ियों को काटने में विवश हो विचार कर रहा है कि पुनः रात्रि व्यतीत होगी, पुनः सुप्रभात होगा; सूर्योदय होने पर मुकुलित कमल पुनः प्रस्फुटित होगा; कमल के पुनः प्रस्फुटित होते ही मैं मुक्त हो जाऊँगा। परन्तु हा, हन्त! रात्रि व्यतीत होने से पूर्व ही कोई महामत्त गजेन्द्र उस सरोवर में अवगाहन करता हुआ उन कमलिनियों को समूल उखाड़ता-रौंदता आ घुसा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चाणक्यनीतिदर्पण 15। 15
  2. सु. र. वे. 6। 44। 42

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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