गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 163

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

भाव-विभोर भक्तों के मन में भगवल्लीलाओं का स्फुरण होता है; भावभरी गोपांगनाओं के मन में भी श्रीकृष्ण द्वारा किये गये प्रश्न का स्फुरण होता है; वे अनुभव करती हैं कि श्रीकृष्ण प्रश्न कर रहे हैं, ‘निरन्तरमसम्यग्भाषिण्यः गोपाल्यः मां सम्यक् असमीक्ष्यभाषिण्यः।’ ‘स्वभावतः निरन्तर असम्यक् वचन बोलने वाली गोपियों! मुझे आत्मदृक् स्वरूप समझते हुए भी तुम लोग मेरे प्रति असंख्य-स्त्री-घाती, पातकी, मित्र-द्रोही, विश्वास-घाती आदि रुक्ष-वचन क्यों बोल रही हो? तुम्हारी ऐसी असंगत धारणाओं के कारण अब ऐसे एकान्त स्थान में चला जाऊँगा जिससे तुम लोगों के जीवन-पर्यन्त मेरा दर्शन ही न हो सके।’

ऐसी कठोर भावना के उद्बुद्ध होने पर गोपांगनाएँ तुरंत ही अपने भावों को परिवर्तित कर कहने लगती हैं, ‘न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिदेहिनामन्तरात्मदृक्।’ अर्थात्, आप केवल गोपिकानन्दन ही नहीं अपितु समस्त शरीरधारियों के आत्मदृक्, अन्तरात्मा के द्रष्टा भी हैं। वैष्णवाचार्यों ने अन्तरात्मा का अर्थ अन्तःकरण ही किया है अतः ‘अन्तरात्मदृक्’ का अर्थ अन्तःकरण के द्रष्टा, सर्वसाक्षी ही हैं। ‘आत्मानम्, जीवात्मानम्, अन्तरात्मानम् पश्यतीति अन्तरात्मदृक्।’ अर्थात्, जीवात्मा का अन्तर्यामी, जीवात्मा का द्रष्टा ही आत्मदृक् है। अतः सखे! आप हमारी अन्तर्वेदना के स्वयं साक्षी हैं। आप हमारे हृद्गत उपतापों को जानते हैं अतः आप भलीभाँति जानते हैं कि हम आपसे कोई कृत्रिम बात नहीं कह रही हैं; हमारे सन्तापों को जानते हुए हम पर कृपा कर शीघ्र ही दर्शन दें।

हे विभो! नन्दरानी, व्रजेन्द्रगेहिनी, यशोदारानी परमदयामयी, कल्याणमयी एवं करुणामयी हैं; यदि आप उनके पुत्र होते, यदि उनके उदर से ही आविर्भाव हुआ होता तो निश्चय ही आपमें यह निष्ठुरता नहीं आ पाती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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