गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4वाल्मीकि ही इतने कठोरचेता हैं जो ऐसी कथा को भी बारम्बार कह सकते हैं। नागोजी भट्ट कहते हैं कि महर्षि वाल्मीकि कठोरचेता नहीं हैं अपितु अतिशय भाव-विह्वलता में प्रलाप कर रहे हैं। इसी तरह गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ के अयोध्याकाण्ड का पाठक यह जानते हुए भी कि राघवेन्द्र रामचन्द्र परात्पर परब्रह्म हैं, उनके विप्रयोगजन्य संताप से विह्वल हो स्वभावतः रो पड़ता है। भगवान् रामचन्द्र के अनन्य भक्त पवन सुत हनुमानजी तो यही वरदान माँगते हैं कि ‘मैं निरन्तर ही भाव-विह्वल हृदय एवं अश्रुपूरित-नयन से भगवत्-कथामृत का पान करता रहूँ!’ सनातन गोस्वामी कहते हैं - ‘सन्त्यवतारा बहवः पुष्करनाभस्य सर्वतो भद्राः। अर्थात् पुष्करनाथ श्रीमन्नारायण विष्णु के अपरिगणित अवतार हुए परन्तु व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण से अन्य ऐसा कौन स्वरूप है जिसने लताओं में भी प्रेम प्रदान किया हो। श्रीकृष्ण-सम्बन्ध से लताएँ भी प्रेमार्द्र हो मधु-धाराएँ टपकाने लगीं। अर्थात, व्रजधाम के वृक्ष एवं लताएँ भी अपने पल्लव एवं शिखाओं से भगवत्-पाद-पंकज संस्पृष्ट-भूमि के संस्पर्श-हेतु वृन्दावन-धाम की भूमि पर झुक आईं। तात्पर्य कि जिसने भगवत्-सम्भोगजन्य लोकोत्तर आनन्द का अनुभव किया हो वही भगवद्-विप्रयोगजन्य तीव्र संताप का भी अनुभव कर सकता है; व्रजांगनाओं ने श्रीकृष्ण-सम्भोग-सुख का आस्वादन किया अतः उन्होंने ही भगवद्-विप्रयोगजन्य तीव्र संताप का भी विशिष्टरूपेण अनुभव किया; अन्य लोगों के लिए वैसी तीव्रानुभूति सम्भव ही नहीं हो सकी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 15। 5