गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 160

Prev.png

गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

अर्थात, मैं निर्गुण अथवा सगुण की पूजा नहीं करता; मैं तो उस प्रेमबन्धन की वन्दना करता हूँ जिसके वशीभूत हो स्वयं मुक्त एवं मुक्तिप्रद परात्पर परब्रह्म भी बद्ध हो गया। इस प्रेम-बन्धन के वशीभूत ही अपरिमेय भी परिमित हो गया; अनन्त ब्रह्माण्डनायक, सर्वाधिष्ठान, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् भी गोपांगनाओं का क्रीड़ा-मृग बन गया। राजा-महाराजाओं के अन्तःपुरों में महारानियों के मनोविनोदार्थं मृगों को लालन-पालन किया जाता था; ये मृग अत्यन्त अनुकूल बनाए जाते थे अतः इनसे महारानियाँ यथेच्छा विनोद किया करती थीं। अद्वैतमतानुसार भी परात्पर परब्रह्म स्वतंत्र एवं सत्य-संकल्प है अतः स्वयं मुक्त एवं मुक्तिप्रद भी है तथापि ‘उपनिषदर्थमुलूखले निबद्धम्’ इस प्रेम-बन्धन के कारण ही उपनिषदर्थ परब्रह्म भी उलूखल में बँध गया; स्वयं परब्रह्म ही उनका क्रीड़ामृग बन गया।
हे प्रभो! आप तो गोपिका-नन्दन हैं; ‘गोपिकाः व्रजसुन्दरीः नन्दयति इति गोपिकानन्दनः’ व्रजसुन्दरियों का नन्दन करने वाले, आनन्द-प्रदान करने वाले ही हैं। अन्तर्धान होकर अपने विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से हम गोपांगनाओं को दग्ध न करें। भगवत्-सम्भोग-सुख से अद्भुत प्रेमरस उद्भूत होता है; तदर्थ ही विप्रयोगजन्य तीव्र ताप की भी अत्यन्त तीव्र एवं मार्मिक विशिष्ट अनुभूति होती है।

‘राम-गमन वन अनरथ मूला।
जो सुन विस्व सकल भं सूला।।’[1]

पारमार्थिक दृष्टिकोण से राघवेन्द्र रामचन्द्र के वन-गमन के कारण वैदिक मर्यादा की सुरक्षा, धर्म का संत्राण, रावण का वध, देवताओं के संकट का विनाश, इन्दादिकों को उनके राज्य की पुनः प्राप्ति आदि अनेक शुभ फल हुए तथापि व्यवहारदृष्ट्या सम्पूर्ण जगत् ही संत्रस्त हो उठा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, अयोध्या का. 2। 206

संबंधित लेख

गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः