गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4अर्थात, मैं निर्गुण अथवा सगुण की पूजा नहीं करता; मैं तो उस प्रेमबन्धन की वन्दना करता हूँ जिसके वशीभूत हो स्वयं मुक्त एवं मुक्तिप्रद परात्पर परब्रह्म भी बद्ध हो गया। इस प्रेम-बन्धन के वशीभूत ही अपरिमेय भी परिमित हो गया; अनन्त ब्रह्माण्डनायक, सर्वाधिष्ठान, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् भी गोपांगनाओं का क्रीड़ा-मृग बन गया। राजा-महाराजाओं के अन्तःपुरों में महारानियों के मनोविनोदार्थं मृगों को लालन-पालन किया जाता था; ये मृग अत्यन्त अनुकूल बनाए जाते थे अतः इनसे महारानियाँ यथेच्छा विनोद किया करती थीं। अद्वैतमतानुसार भी परात्पर परब्रह्म स्वतंत्र एवं सत्य-संकल्प है अतः स्वयं मुक्त एवं मुक्तिप्रद भी है तथापि ‘उपनिषदर्थमुलूखले निबद्धम्’ इस प्रेम-बन्धन के कारण ही उपनिषदर्थ परब्रह्म भी उलूखल में बँध गया; स्वयं परब्रह्म ही उनका क्रीड़ामृग बन गया। ‘राम-गमन वन अनरथ मूला। पारमार्थिक दृष्टिकोण से राघवेन्द्र रामचन्द्र के वन-गमन के कारण वैदिक मर्यादा की सुरक्षा, धर्म का संत्राण, रावण का वध, देवताओं के संकट का विनाश, इन्दादिकों को उनके राज्य की पुनः प्राप्ति आदि अनेक शुभ फल हुए तथापि व्यवहारदृष्ट्या सम्पूर्ण जगत् ही संत्रस्त हो उठा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, अयोध्या का. 2। 206