गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3हे व्रजेन्द्रनन्दन! आप ही हमारे प्राणनाथ, प्रियतम, प्राणाधार हैं। ‘गवां रक्षकः ऋषभः’ जैसे गो-समूह का रक्षक गवेन्द्र, ऋषभ ही होता है, वैसे ही आप ‘ऋषभः पुरुषर्षभः पुरुषेषु श्रेष्ठः’ पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषोत्तम हम गोपांगनाओं के रक्षक हैं। हे व्रजेन्द्रनन्दन! आप हम व्रज-वनिताओं के, सम्पूर्ण व्रज-वासियों के ही ऋषभ हैं; स्वाश्रितजनों के लिए आवश्यकतानुसार अपने सर्वश्रेष्ठ का त्याग किंवा बलिदान कर देने वाला ही ऋषभ होता है अतः उचित तो यह था कि आप हमारा रक्षण करें परन्तु इसके विपरीत आप अपने कार्पण्य के कारण हमारा हनन ही कर रहे हैं। मधुसूदन सरस्वती कह रहे हैं, ‘यः स्वल्पामप्यात्मनो वित्तक्षतिं न क्षमते स कृपणः’ जो समर्थ होने पर भी अपने धन का किंचिन्मात्र भी व्यय नहीं करता वह कृपण है। बुद्धिमान् व्यक्ति अर्जन करते हुए कौड़ी-कौड़ी जोड़ता है परन्तु उपयुक्त अवसर आने पर उसी तत्परता से व्यय भी करता है। ‘अजराऽमरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्’ प्राज्ञ अपने को अजर-अमर मानकर ही विद्या एवं धन का अर्जन करे। ‘गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्।’ धर्माचरण का अवसर उपस्थित होने पर विज्ञ यत्नपूर्वक संग्रहीत विद्या एवं धन का व्यय ऐसी तत्परता से करता है मानो मृत्यु हाथ में तलवार लेकर उसके केशों को पकड़े हुए गला काटने के लिये उद्यत हो रही है।” कहते हैं - ‘काल करे से आज कर आज करे सो अब। |