गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3अर्थात, मित्र (सूर्य) के अवसान के समय उदित होने वाले कुटिल एवं कलंकित स्वाश्रित चन्द्रमा का भी त्याग न कर भगवान् शंकर ने उसको अपने शीश पर ग्रहण किया। अतः हे नाथ! हम स्वाश्रितों के दोष का विचार न करते हुए हमें भी आप शरण दें।” भक्त कहता है - जो प्रभु मेरे कार्य का, मेरे गुण-दोष का विचार करें तो शतकोटि कल्प तक भी मेरा उद्धार सम्भव नहीं हो सकता। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-“हे नाथ! जैसे नहरनी से सुमेरु पर्वत का उन्मूलन सम्भव नहीं वैसे ही मेरे सुकृत रूप नहरनी द्वारा दुष्कृत रूप सुमेरु का उन्मूलन भी कदापि सम्भव नहीं। अतः हे नाथ! अशरण-शरण, करुणा-वरुणालय आप हो स्वानुग्रहवश मुझ दीन का भी कल्याण करें। आपका साक्षात्कार ही अशेषतः कल्याणकारी है अतः निजानुग्रहवश आप साक्षात् आविर्भूत हों। ‘पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसम्भवः। मानव ही प्रत्यक चैतन्याभिन्नतया ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार कर सकता है। यदा-कदा बाह्यतः साधुवेश अपनाने पर भी अन्तःकरण दम्भ एवं काम से मलिन रहता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- ‘बंचक भगत कहाइ राम के, किंकर कंचन कोह काम के।’[2] बाह्य कर्माडम्बरजन्य दर्पयुक्त चित्त से भगवत्-स्वरूप सदा ही अग्राह्य है। |