गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 138

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 3

अर्थात, मित्र (सूर्य) के अवसान के समय उदित होने वाले कुटिल एवं कलंकित स्वाश्रित चन्द्रमा का भी त्याग न कर भगवान् शंकर ने उसको अपने शीश पर ग्रहण किया। अतः हे नाथ! हम स्वाश्रितों के दोष का विचार न करते हुए हमें भी आप शरण दें।” भक्त कहता है -

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।[1]

जो प्रभु मेरे कार्य का, मेरे गुण-दोष का विचार करें तो शतकोटि कल्प तक भी मेरा उद्धार सम्भव नहीं हो सकता। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-“हे नाथ! जैसे नहरनी से सुमेरु पर्वत का उन्मूलन सम्भव नहीं वैसे ही मेरे सुकृत रूप नहरनी द्वारा दुष्कृत रूप सुमेरु का उन्मूलन भी कदापि सम्भव नहीं। अतः हे नाथ! अशरण-शरण, करुणा-वरुणालय आप हो स्वानुग्रहवश मुझ दीन का भी कल्याण करें। आपका साक्षात्कार ही अशेषतः कल्याणकारी है अतः निजानुग्रहवश आप साक्षात् आविर्भूत हों।
अहंकार ही पतन का मूल है। अतः कहा जाता है -

‘पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसम्भवः।
त्राहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरो भव।।’

मानव ही प्रत्यक चैतन्याभिन्नतया ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार कर सकता है। यदा-कदा बाह्यतः साधुवेश अपनाने पर भी अन्तःकरण दम्भ एवं काम से मलिन रहता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- ‘बंचक भगत कहाइ राम के, किंकर कंचन कोह काम के।’[2] बाह्य कर्माडम्बरजन्य दर्पयुक्त चित्त से भगवत्-स्वरूप सदा ही अग्राह्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, उ. का. चै. 5
  2. रामचरितमानस, बा. का. 12। 3

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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