गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3इस गीत में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा विष-संपृक्त यमुना-जल, व्याल राक्षस, अघासुर, वर्ष, मारुत एवं अशनिपात आदि विभिन्न भयों से सम्पूर्ण व्रजधाम के अन्तर्गत ही अपने भी रक्षण की चर्चा करती हैं। वस्तुतः उपर्युक्त सब भय श्रीकृष्ण पर ही थे तथापि कृष्ण-मंगल में ही अपने मंगल का अनुभव करने के कारण व्रजांगनाएँ उन उपद्रवों को अपना भय मानती हैं। इसी प्रसंग में गोपांगनाओं द्वारा वृषासुर-व्योमासुर आदिकों के वध का भी उल्लेख हुआ है; ये लीलाएँ रासलीला के बाद ही हुईं। भगवद्रूपा व्रजसीमन्तिनीजनों मे प्रेमोद्रेक के कारण सहस सर्वज्ञता है। विशेषतः विरहजन्य आर्ति से प्रेम का विशेष उच्छलित होना व्यक्त है। एतावता भविष्य की स्फूर्ति स्वभावतः ही हो जाती है। श्रुतिरूपा गोपांगनाएँ भी त्रिकालज्ञा हैं अतः अपने प्रातिभ-ज्ञान से भविष्य-वर्णन करने में समर्थ हैं। किसी विशेष प्रमाण के अभाव में अकस्मात् स्फुरित होने वाला ज्ञान ही प्रातिभ-ज्ञान है। निवृत्तिपक्षीय अर्थाभिव्यक्ति के अनुसार ‘क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।।’[1] अर्थात् सम्पूर्ण कार्यभूत क्षर है; कूटस्थ ही अक्षर है; ‘परमात्मा क्षराक्षराभ्यां विलक्षणः’ परमात्मा ही क्षराक्षरातीत, कार्यकारणातीत है; ‘कूटो वन्चनाछद्मता तथा तिष्ठति इति कूटस्थः’ अव्याकृत माया-विशिष्ट चैतन्य ही माया के द्वारा अनेकधा व्यक्त होता है, वही परमात्मा है। श्रुति-कथन है-‘स उत्तमः पुरुषः’[2] ‘हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नापरः’ हरि भगवान् ही पुरुषोत्तम हैं, त्र्यंबक महेश्वर हैं। |