गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3जिस समय भगवान के चरण, भुजाएँ एवं दृष्टि-दर्प-दलन-हेतु अग्रसर होती है उस समय तत्-तत् अवयव साधनस्वरूप हैं परन्तु जब उन्हीं चरणारविन्द एवं हस्तारविन्द-संस्पर्श से तथा मंगलमयी दृष्टि के प्रेम-वीक्षण से भक्तानुग्रह होता है तब वे साध्यस्वरूप हो जाते हैं परन्तु भगवान-मुखचन्द्र में केवल साध्यरूपता ही है। इस सर्वथा फलस्वरूप मुखचन्द्र की अधर-सुधा ही सम्पूर्ण फलों का सार विशुद्ध रस है। अधिकार-भेद भगवदधरामृत के भी तीन प्रभेद हैं-देव-भोग्या, भगवत-भोग्या एवं सर्वा-भोग्या। स्वभावतः ही भगवान-मुखचन्द्र की मंगलमयी अधर-सुधा-विशुद्ध रसनिधि के यथायोग्य वितरण में कोई अत्यन्त कुशल कोषाध्यक्ष ही समर्थ हो सकता है; अस्तु, साक्षात लोभ ही इस रसनिधि का कोषाध्यक्ष है। अबाध-प्राप्ति ही अर्थी की कामना है; यथायोग्य वितरण कोषाध्यक्ष का कौशल है। तात्पर्य कि अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय, अशरण-शरण, भक्तवत्सल भगवान भक्त की योग्यतानुसार ही उसको स्वसंस्पर्शजन्य आनन्दरूप फल प्रदान करते हैं तथापि भावातिरेक के कारण भक्त को भगवत-कार्पण्य की ही प्रतीति होती है; भगवदाश्लेष-सुख से भक्त सदा ही अतृप्त रह जाता है। विरहातुरा गोपांगनाएँ भी भाव-विभोर होकर ही भगवान श्रीकृष्ण में कार्पण्यदोष का आरोप करती हैं। गोपांगनाएँ कल्पना करती हैं कि उनके प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि हे व्रजसीमन्तिनी जनो! हमने तो अत्यन्त भयंकर सन्तापों से आपकी बारम्बार रक्षा की है। स्वयं आपके ही वचन इसके प्रमाण हैं। इतने पर भी आप लोग कह रही हैं कि हम आपका वध कर रहे हैं। आपका यह कथन विरोधाभास एवं अप्रामाण्य-दोष से युक्त है। प्रति-उत्तर में व्रजांगनाएँ कहती हैं, ‘हे ऋषभ! स्वयं ही हनन करने की लालसा से ही आपने अनेकानेक आपदाओं से हमारी रक्षा की है। ‘ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहु:’।’ यहाँ ‘ऋषभ’ शब्द भर्तार्थ में प्रयुक्त हुआ है। व्रजांगनाएँ व्यंग्य कर रही हैं ‘हे भर्ता! भर्ता होने के कारण आपको हमारा भरण करना ही उचित है तथापि आपने हमारा दृशावध ही किया; इतने पर भी अब अपने अदर्शन से हमारे प्राणों का अपहरण कर रहे हैं अतः यही प्रतीत होता है कि स्वतः वध करने की लालसा से ही आपने इस विपत्ति-परम्परा से हमारा रक्षण किया है। |